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महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन
(ग) 'उत्खाताघ्रिपति निष्फलमितः सजायते चुम्बितं
पिष्टोपात्तशरीरवच्च लुलितोऽप्येवं न याति स्मितम् । संभृष्टामरवतिसर्जनमतः स्याद्दासि प्रस्योचितं
- भिन्न जातु न मे हगन्तशरकश्चेतोऽस्य सम्बमितम् ॥" (घ) 'गतो नृपद्वापिनिष्फलत्वमेवान्वभूत्केवलमात्मसत्त्वः ।
पुनः प्रतिप्रातरिदं ब्रवाणः बभूव भद्रः करुणकशाणः ॥२
उपर्युक्त उदाहरणों में पहला उदाहरण युद्ध-वर्णन का है। इस उद्धरण में एक से प्रक्षर, रेफ का संयुक्त प्रयोग एवं समस्त पदावली दृष्टिगोचर हो रही है। इन विशेषतामों के कारण प्रोजो गुण वीर रस को दीपित कर रहा है । दूसरे, तीसरे उदाहरण में दीर्घ समास मोजो गण का व्यञ्जक है। इसी प्रकार चौथे उदाहरण में भी समस्त पदावली प्रयुका की गई है। प्रसादगरण का स्वरूप एवं उसके अभिव्यञ्जक तस्व
सब रसों में स्थिर रहने वाले गुण को प्रसाद गुण कहा जाता है । जिस रचना को पढ़ते ही उसका अर्थ स्पष्ट हो जाय तो समझना चाहिए कि वहां प्रसाद गुण भी है। महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काग्यों में प्रसाद गुण
निस्सन्देह कविवर के काव्य प्रसादगणोपेत हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं(क) "धर्मस्वरूपमिति संष निशम्य सम्य
ग्नर्मप्रसाषनकरं करणं नियम्य । कर्मप्रणाशनकशासनकद्धरीणं ।
शर्मकसाधनतयार्थितवान् प्रवीणः ।।"५ (ख) "रराज मातुरुत्सङ्ग महोदारविचेष्टितः ।
क्षीरसागरवेलाया इवाले कौस्तुभो मणिः ॥ मगादपि पितुः पावें उदयारियांशुमान् ।
सर्वस्य भूतलस्यायं चित्ताम्भोजं विकासमन् ॥"" १. सुदर्शनोदय, ७३१ . २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३३३ ३. "शुष्कन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसव यः ॥ म्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसो सर्वत्र विहितस्थितिः ।"
-काव्यप्रकाश(मम्मट), ८1७० का उत्तरार्ष भोर ७१ का पूर्वार्ध । ४. 'तिमात्रेण शब्दात्त येनार्थप्रत्ययो भवेत् । साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः ॥
-वही, ८७६ ५. पयोदय, २०६५ 1. वीरोदय, ८८९