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________________ महाकपि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३७१ रस की शोभा स्पष्ट ही प्रतीत हो रही है। इन उदाहरणों में प्रसमस्तपदावली भी दृष्टिगोचर हो रही है मोर दूसरे उदाहरण में वर्ग अपने वर्ग के पंचम अक्षर से संयुक्त हैं । प्रतएव यहाँ पर माधुर्यं गुण है। माधुर्य गुण के कारण ही यहाँ पर शान्त इत्यादि रस अपेक्षाकृत अधिक माह्लादक हो गए हैं। प्रोजोगुण का स्वरूप एवं उसके अभिव्यञ्जक तत्व वीररस, वीभत्स रस घोर रौद्ररस में क्रमशः प्रतिशयता से रहने वाली, बस के विस्तार की काररणभूत दीप्ति को ही भोज कहते हैं ।" मोजो गुण प्रभिव्यञ्जक तत्व इस प्रकार हैं के (क) वर्ग के प्रथम प्रौर तृतीय प्रक्षरों का द्वितीय प्रोर चतुर्थ से योग । (ख) रेफ का वर्ग के किसी भी प्रक्षर से किसी प्रकार का योग । (ग) एक से अक्षरों का साथ-साथ प्रयोग । (घ) टवर्ग का बहुल प्रयोग । (ङ) बीघं समास से युक्त पदावली का प्रयोग । (च) उद्धत रचना । 2 महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में प्रोजोगुण श्रीज्ञानसागर के काव्यों में प्रोजो गुण भी कुछ स्थलों पर दृष्टिगोचर होता जिसके कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं २. (क) 'य एकचक्रस्म सुतोऽत्र वक्रः स्याम्नश्चतुश्चक्रतयेव शक्रः । जयो जयस्येति समुन्नताङ्गाश्चच्चकुरित्यत्र जबाच्छताङ्काः ॥ नभोऽत्र भो त्रस्तमुदीरणाभिर्भवदभयनामतिदारुणाभिः । सुभैरवः संन्यरवेः करालवाचाल वक्त्रेरिव पूञ्चकाल ।। (ख) 'उत्फुल्लोत्पलचक्षुषां मुहरथाकृष्टाऽऽनन श्रीसा 13 काराबद्धतनुस्ततोऽयमिह यद्विम्बावता रच्खलात् । नानानिर्मलरत्नराजिजटिल प्रासादभिताविति तच्चन्द्राश्मपतत्पयोभरमिषाच्चन्द्रग्रहों रोदिति ॥४ १. 'दीप्यात्म विस्तृतेर्हेतुरोजो वीररस स्थितिः ॥ बीभत्स रसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च । - काव्यप्रकाश (मम्मट) ८।६२ का उत्तर, ७० का पूर्वाधं । 'योग प्रायतीवाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः । टादि: शषो वृत्तिर्दध्यं गुम्फ उद्धत प्रोजसि ।।' -बही (मम्मट): :८1७१ ३. पयोदय ५, ६ ४. वीरोदय; २१४६
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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