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________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन प्रभारण ४२४ जैन- दार्शनिकों ने दो प्रमाण माने हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान । किन्तु कवि ने इन दो के अतिरिक्त स्मृति को भी प्रमाण मान लिया है 13 सारांश उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि ने धर्म एवं दर्शन के विषय में जितने विचार प्रकट किये हैं, उतने समाज इत्यादि के विषय में नहीं । इसका कारण यह है कि महाकवि ज्ञानसागर ग्राजीवन ब्रह्मचारी रहे; और उन्होंने अपना अधिकाधिक समय धर्मचिन्तन में लगाया। सनातन धर्म की विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न किया । धर्म के प्रति उनकी इतना आस्था से स्पष्ट है कि उन्हें धर्मप्रधान समाज, धर्मप्रधान राज्य, धर्मानुकूल प्रर्थव्यवस्था घोर धर्मानुकूल संस्कृति प्रिय है । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि समाज इत्यादि के प्रति अपनी मान्यता को पूर्णरूपेण प्रकट करने में वह असमर्थ रहे । प्रस्तुत अध्ययन में समाज इत्यादि के प्रति उनकी विचार धारा इस बात की पुष्टि करती है । उन्होंने न केवल साधु-संन्यासियों अपितु गृहस्थों के प्राचार-व्यवहार की बहुत सी बातें बताई हैं, जिनका पालन करने से व्यक्ति प्रात्मकल्याण के साथ-साथ लोककल्याण भी कर सकता है । १. माधवाचार्य, सर्वदर्शनसङ्ग्रह, पूर्वपीठिका, पृ० सं० २० २. वीरोदय, २०१३६-२१
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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