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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष
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(क) एवं सुमन्त्रवचसा भुवि भोगवत्या
दोऽसपणमगात्स्विदनन्यगत्या । हस्तं व्य मुञ्चति मन्दतयाऽपि मत्या
यदोदयादहुसुदर्शनपुण्यतत्याः ॥"" (पुनर्जन ने कपिला से कहा कि वह नपुंसक होने के कारण उसको आशा पालन करने में असमर्थ है। उसके ऐसे वचन सुनकर संसार में भोगविलास करने वाली, कूटिल गतिवाली कपिला का दर्प समाप्त हो गया। निरुपाय होकर उसने सुदर्शन का हाथ छोड़ दिया। प्रथवा सुदर्शन के पुण्यों के कारण उसने उसका हाथ छोड़ा ।)
__इस श्लोक में सुदर्शन के दर्शन के कारण प्रबुद्ध रतिनाम स्थायिभाव उसके वचनों के परिणाम स्वरूप शान्ति को प्राप्त हो रहा है। प्रतएव यहाँ भावशान्ति है। (ख) "इत्येवं वचनेन मार्दववता मोहोऽस्तभावं गतः ।
यद्वद्गारुडिनः समन्त्रवशतः सर्पस्य दो हतः ।।"२ - (देवदत्ता वेश्या की प्रार्थना पर सदर्शन ने उसको जैनधर्म का उपदेश दिया। सुदर्शन के सकोमल उपदेश वचनों से वश्या का मोह वैसा हो तिरोहित हो गया, जैसे कि गारुडि के समन्त्र वश सर्प का दर्प नष्ट हो जाता है।)
प्रस्तुत श्लोक में मोह नामक व्यभिचारिभाव को शान्ति की स्पष्ट अभिव्यञ्जना के कारण भावशान्ति है।
(ण) भावोदय का स्वरूप गम्भीर जलाशय में यदि पत्थर फेंका जाय तो उसके जल में अनेक लहरें उठने लगती हैं। इमो प्रकार विशिष्ट वातावरण से प्रभावित होकर हमारे हृदय के सोये हुए भाव जागरित हो जाते हैं। विशेष परिस्थितियों में हृदय में भावों का इस प्रकार जागरित हो जाना हो भावोदय है । (त) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में भावोदय
श्री ज्ञानसागर के सभी संस्कृत-काव्यों में भावोदा के उदाहरण देखने को मिलते हैं । क्रमशः उदाहरण प्रस्तुत हैं -
१. सुदर्शनोदय, ५।२० २ वही, ६७४ ३. (क) काव्यप्रकाश, ४३६ शा उत्तरार्ष।
(ख) साहित्यदर्पण, ३१२६७