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महाकवि मानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में लापन
३८६ (8) अली
शेली भावपक्ष और कलापक्ष को जोड़ने का एक साधन है। यही वह तत्त्व है, जिसके द्वारा हम किसी कवि की मौलिकता की परीक्षा कर पाते हैं। 'शेली' शन्द का तात्पर्य है ढंग । प्रतः साहित्य के क्षेत्र में अपने विचारों को प्रकट करने का जो ढंग कवि या लेखक अपना लेते हैं, उसी को शैली कहते हैं। प्रत्येक कवि या लेखक की अपनी-अपनी शैसी होती है। किसी की शैली भावपक्ष को अभिव्यञ्जना कराने में समय होती है तो किसी की शैली उसके पाण्डित्यप्रदर्शन का साधन होती है । कवि के कहने के इस ढंग को काव्यशास्त्रीय राष्टि से तीन प्रकार का कहा गया है-
":. . . (क) वैदर्भी शैली- इस शैली में कवि ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो माधर्य गण के अभिव्यजक होते हैं। इस शैली में समासों का प्रायः प्रभाव होता है या कहींकहीं स्वल्प समासों की छठा दृष्टिगोचर होती है। इस स्थिति में यह शैली सरल मोर मधुर होने के कारण काव्य को पालादक बना देती है। इसको यह विशेषता है कि इसमें कलापक्ष को भावपक्ष के अनुरूप ही प्रस्तुत किया जाता है।' (ख) गोडी शैली. इस शैली में ऐसे वर्णों का प्रयोग किया जाता है, जो प्रोजो गुण के अभिव्यजक होते हैं। दीर्घसमासों का इसमें बहुतायत से उपयोग किया जाता है। यह शैली प्राडम्बरपूर्ण होती है । कवि को इस शैली में अपने पाण्डित्यप्रदर्शन का भी प्रवसर मिल जाता है । प्रतः इस शैली में रचित काव्य पाठक से बौद्धिक व्यायाम करवाता है । (ग) पाञ्चाली शैली--
इस शैली में प्रसाद गुग्ग के अभिध्यञ्जक वणों का प्रयोग किया जाता है। इसमें पांच-पांच पोर छ:-छ: तक पदों के समास भी मिलते हैं। साथ-साथ मधुरवरणों का भी प्रयोग मिलता है। वास्तव में यह शैली वैदर्भी पौर गोडी शैली का मिश्रित रूप है । इस शैली में रचित काव्य को पढ़ने पर वर्ण्य-विषय प्रासानी से समझा जा सकता है। महाकवि मानसागर की शैली
जब हम उपर्युक्त तीनों शैलियों की विशेषतानों को पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर की रचनाओं में घटाते हैं तो ज्ञात हो जाता है कि उनके काव्यों को प्रस्तुत करने की शैली वैदर्भी है। गोडी मोर पांचाली शैली के उदाहरण उनके काव्यों में प्रत्यल्प हैं । सर्वप्रथम वैदर्भी शैली के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :१. साहित्यदर्पण, ६२ का उत्तरार्ष, ३ का पूर्वार्ध । २. वही, ६।३ का उत्तरापं, ४ के पूर्वाध का प्रर्षभाग। ३. बही, ६।४