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(क)
"अखिलानुल्लङ्घ्य जनान् सुलोचना जयकुमारमुपयाता । माकन्दक्षारमिव पिकापि का सा मधो ख्याता ॥ सा देवी राजसुता चेतो यत्तदनुकूलकं लेभे । मेघेश्वरगुणमाला वर्णयितुं विस्तराद्रे ॥ अवनी ये ये बीरा नीराजनमामनन्ति ते सर्वे । यस्मै विक्रान्तोऽयं समुपैति च नाम तदखवें ॥।
समुत्पन्नो गुणाधिकारेण भूरिशो नम्रः । चाप इवाश्रितरक्षक एष च परतक्षकः काम्रः ॥ १ प्रस्तुत श्लोकों में सुलोचना स्वयंवर का वर्णन है । यहाँ पर स्वरूपसमासा मौर प्रसमासा शब्दावली का प्रयोग है। माधुर्य गुण भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इन श्लोकों के पढ़ने से पाठक के मन में प्रागे माने वाले वष्यं विषय के प्रति श्रौत्सुक्यपूर्ण प्रह्लाद भी जागरित होता है ।
"सुतनुः समभाच्छ्रियाश्रिता मृदुना प्रोच्छनकेन मार्जिता । कनकप्रतिमेव साऽशिताप्यनुशारणोत्कशन प्रकाशिता । मुहुराप्तजलाभिषेचना प्रथमं प्राव डभूत्सुलोचना | तदनन्तरमृज्ज्वलाम्बरा समवापापि शरच्छ्रियं तराम् ॥३
महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
इन श्लोकों में विवाह के पूर्व किये गए सुलोचना के स्नान एवं प्रलंकरण का वर्णन है। मधुर शब्दावली के प्रयोग के कारण वर्णन रोचक हो गया है । "नत्र प्रसङ्ग परिचेता नवां वधूटीमिव कामि एताम् । महुर्मुहुश्चुम्बति चञ्चरीको माकन्दजातामथ मञ्जरीं कोः ॥ प्राम्रस्य गुञ्जत्कनिकान्तरालेर्नालीकमेतत्सहकार नाम । esari कर्मक्षरण एव पान्याङ्गिने परासुत्वभूतो वदामः ।। " 3 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने वसन्त ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है। यहाँ पर पाठक के मन में प्रह्लाद उत्पन्न करने में मधुर शब्दावली से युक्त प्रवाहपूर्ण वैदर्भी शैली पूर्णतया सफल हुई है ।
(थ)
"रराज मातुरुत्सङ्ग महोदारविचेष्टितः । क्षीरसागरवेलाया इवा कौस्तुभो मरिणः ।। गादपि पितुः पार्श्वे उदयाद्रे रिवांशुमान् । सर्वस्य भूतलस्यायं चित्ताम्भोजं विकासयन् ।
(14)
१. जयोदय, १०२-१०५
२. बही, १० २८- २६
३. वीरोदय ६।२०- २१
४.
वही, ८८-६