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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन
(घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र
ग्रन्पारम्भ में अगूढगुणीभूतम्यङग्य का उदाहरण देखिए :
"नाहं कविमत्थंभवो नु पस्मि सरस्वतीसंग्रहणाय तस्मिन् । ममाप्यतः काव्यपथेऽधिकार: समस्तु पित्रीननुवालचारः ॥""
(मैं कवि नहीं हूँ, मैं तो मनुष्य जन्म को धारण करने वाला साधारण प्राणी हूँ। अतः विद्याप्राप्ति के लिए मेरा भी काव्यरूपी मार्ग में अधिकार है। बालक पिता इत्यादि पूज्य व्यक्तियों का हो अनुसरण करता है ।)
यहां पर यह ध्वनि स्पष्ट निकलती है कि मुझसे पूर्व अनेक कवि हो गए हैं। काव्य-रचना में मझे उन्हीं का अनुसरण करना है। इस ध्वनि की प्रत्यधिक स्पष्टता के कारण यहाँ गुरणीभूत व्यंग्य काव्य है। (5) दयोदयचम्पू
- महाबल को मृत्यु के पश्चात् गुणपाल के कथन में प्रगूढ (गुणीभूत) व्यंग्य की झलक देखिए :
"महो किलतदप्यस्माकं शिरस्येव वधमापतितमाभातीति ।
मनसि निधाय जगादस पुनरागतो न वेति ।"२
यहाँ गुणपाल के कथन से-कहीं महाबल हो तो मृत्यु को प्राप्त नहीं हो मया--यह अर्थ स्पष्टरूपेण अभिव्यञ्जित होता है ।
म. सारांश इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीज्ञानसागर ने भावपक्ष के समक्ष भेदों को अपने काव्य में प्रस्तुत किया है । उनके काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उनकी कविता 'नवरसरुचिरा' ही नहीं वरन् 'दशरसरुचिरा' भी है। उनके काव्यों में वर्णित अन्य नो रस शान्त रस की पुष्टि हेत ही प्रस्तुत किए गए हैं। भावों की अभिव्यञ्जना में तो कवि ने अपना अद्भुत ही कौशल दिखाया है। भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना भी शान्त रस की अभिव्यञ्जना में सहायक है। कवि की भावाभिव्यञ्जना को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि कवि मानव मन का सूक्ष्मता से अध्ययन कर चुके हैं। एक और निर्वद इत्यादि के द्वारा सोमवत्त के सारल्य को प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी पोर ममर्ष के द्वारा गुणपाल के हठी स्वभाव को भी प्रस्तुत करते हैं । उनकी भावाभिव्यजना ने समाज में प्राप्य सभी प्रकार के मानव-स्वभावों को हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है । जयोदय, वीरोदय, पोर दयोदयचम्पू को हम रसाभिव्यञ्जना एवं भावामिम्बञ्जना को रष्टि से सफल काय कह सकते हैं। किन्तु श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में कथानकों के विशङ्खल होने के कारण रसाभिव्यञ्जना एवं भावाभिव्यञ्जमा उचित प्रकार से नहीं हो पाई है। सहव्य पाठक को यह कमी पटकती है। १. मोसमुद्रदत्तचरित्र, १११२ २. दयोदयचम्पू, पृ० सं० १०३