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अष्टम अध्याय महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में कलापच
कला का स्वरूप और भेद प्रस्तुत शोष-प्रबन्ध के सप्तम अध्याय में बताया गया है कि काव्य के दो पक्ष होते है-भावपक्ष और कलापक्ष । भावपक्ष यदि काव्य का प्राणतत्व है तो कलापक्ष काव्य का शुङ्गार है । पब इस अध्याय में मुनि श्री के काम्यों में कलापमा पर विचार करना ही हमारा वर्ण्य-विषय है।
'कला' शब्द 'संवारना' अर्थवाली कल् पातु से कच् एवं टाप् प्रत्ययों' योग से निष्पन्न हुमा है ।' प्रतः 'कला' शब्द का शाब्दिक अर्थ है पदार्च को संवारने वाली।
भनेक भारतीय एवं पावणात्य मनीषियों ने कला के विषय में अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं। यहां उनके विचारों के साररूप में कला का स्वरूप कुछ इस प्रकार बताया जा सकता है :-किसी अमूर्त पदार्थ की सुरुचि के साथ सुन्दर एवं मूर्त रूप प्रदान करने वाली चेष्टा का नाम कला है। जब व्यक्ति इस जगत पव्यक्त सत्य की अपनी चेष्टामों से व्यक्त रूप प्रदान करता है तब वह कलाकार कहलाता है पोर उसकी चेष्टा कला । भारत के प्राचीन विद्वानों ने चौसठ कलाएं गिनायी हैं। पर पाश्चात्य विद्वानों ने कलामों को केवल दो वर्गों में विभक्त
१. वामन शिवराम माप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृष्ठ संख्या २५६ २. गीतम, बाथम्, नृत्यम्, पालेश्यम्, विशेषकच्छे बम्, तण्डुलकुसुमवसिविकाराः,
पुष्पास्तरणम्, दशनवसनाङ्गरागः, मणिभूमिकाकर्म, शयनरचनम्, उदकबावम्, उदकापात:, चित्राश्च योगाः, माल्यग्रबनविकल्पाः, सरकापीरयोजनम्, नेपथ्यप्रयोगाः, कर्णपत्रभङ्गा, गन्धयुक्तिः, भूषणयोजनम्, ऐनपामाः, कोचुमाराश्च योगाः, हस्तलापवम्, विचित्रशाक्यूषनयविकारक्रिया, पानकरसरानासवयोजनम्, सूचीवानकर्माणि, सूत्रक्रीम, वीणाडमकवाचानित प्रहेविका, प्रतिमासा, दुर्वाचकयोगाः, पुस्तब्वाचनम्, नाटकास्यापिका