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________________ 'महाकवि -ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष १५ ( हे रानी ! मनोरमा के पति रूप में प्रसिद्ध उस युवक (सुदर्शन) को तुम्हारा मन लक्ष्मी के अधिपति के रूप में विख्यात करने के लिए युवावस्था धारण कर रहा है ।) प्रस्तुत श्लोक में प्रथम पंक्ति की प्रावृत्ति द्वितीय पंक्ति में हुई है। दोनों पंक्तियों में तात्पर्य का भेद होने के कारण लाटानुप्रास है । afa के प्रिय अलङ्कार अन्त्यानुप्रास की भी एक झलक देख लीजिए" हे नाथ मे नाथ मनाविकारः, चेतस्युतकान्ततया विचारः । शत्रुश्च मित्रं च न कोऽपि लोके, हृष्यज्जनोऽज्ञो निपतेच्च शोके ॥ लोके लोकः स्वार्थ भावेन मित्रम् नोचेच्छत्रुः सम्भवेन्नात्र चित्रम् । राशी माता मह्यमस्तूक्तकेतुः, रुष्टः श्रीमान् प्रातिकूल्यं हि हेतुः ॥" सुदर्शनोदय, ८।१५-१६ यहाँ प्रथम पङ्क्ति के अन्तिम प्रक्षर की प्रावृत्ति दूसरी पङ्क्ति के अन्त में ष्टिगोचर हो रही है, इसलिए अन्त्यानुप्रास है । यमक - श्रर्थे सत्यर्थं भिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः । यमकम्... 11 - ( काव्यप्रकाश, ६८३) श्रीज्ञानसागर के काव्यों के परिशीलन से यमक के अनेक प्रकार के भेदों तथा प्रभेदों का प्रयोग उदाहरण प्रस्तुत हैं धारा यमक ज्ञात होता है कि उन्होंने किया है, जिनके कतिपय "विपल्लवानामिह सम्भवोऽपि न विपल्लवानामुत शाखिनामपि । सदा रमन्तेऽस्य विहाय नम्बनं सवारमन्ते रुचितस्ततः सुराः ।। " -जयोदय २४|५५ प्रस्तुत पद्म में प्रथम पाद के प्रादिभाग की, द्वितीयपाद के प्रादिभाग में प्रोर तृतीय पाद के प्रादिभाग की चतुर्थपाद के प्रादिभाग में प्रावृत्ति होने के कारण एकदेशज प्राय यमक है ।" १. (क) “पादं द्विधा वा त्रिधा विभज्य तत्रैकदेशजं कुर्यात् । प्रावर्तयेत्तमंशं तत्राम्यत्राति वा भूयः ॥" - रुद्रटकृत काव्यालंकारः ३।२०
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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