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________________ महाकवि भानसागर का जीवन-दर्शन पर्यय ज्ञानी एवं केवलज्ञानी पुरुष मुनि कहलाते हैं तथा ऋद्धि प्राप्त क्लेश सम्ह को रोकने वाले पुरुष ऋषि कहलाते हैं।' इस स्थिति के बाद पुरुप में वीतरागता परमसीमा तक बढ़ने लगती है। फलस्वरूप उसे परमेष्ठी कहा जाता है । श्रेष्ठता के क्रम में इनके भी पांच भेद होते हैं :-महन्त परमेष्ठी, सिद्धपरमेष्ठी, प्राचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी बोर साधु परमेष्ठी। इनमें महन्त परमेष्ठी की संज्ञा उसे मिलती है, जो शारीरिक विकारों से रहित, जातिकर्मों को नष्ट करने वाला, अनन्त ज्ञान, वर्शन, सुख मोर बोयं से युक्त हो। जिस पुरुष के ज्ञानावरणादि पाठ कर्म नष्ट हो गये हों, जिसके मन्दर सम्यक्त्वादि पाठ गुण हों, जो लोकाकाश के ऊपर स्थित, मानन्दयुक्त, कर्ममल से रहित हो उसे सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार भोर तपस्याचार इन पांच प्राचारों का स्वयं पालन करने वाला एवं शिष्य वर्ग के १. (क) 'मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१), यशस्तिलकचम्पू उपासनाध्ययन, ५२६ का उत्तरार्ध । (ख) 'मुनयोऽवधिमानः पर्ययभवज्ञानिनश्च कथ्यन्ते ।' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१), चरित्रसार भावकाचार, नोक २२ के पूर्व का गद्य । २. (क) 'रेषणाक्नेशराशीनामृषिमाहुमनीषिणः ।' -श्रावकारसंग्रह (भाग-१) यशस्तिलकचम्पू श्रावकाचार, श्लोक २२ के पूर्व का गद्य । ३. 'परमेऽत्युत्तमे स्थाने तिष्ठन्ति परमेष्ठिनः । ते चाहंसिख प्राचार्यः पाठक: साधुरास्पया। -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह प्रावकाचार, ७।११४ ४. (क) 'स्वभावशानजामयविहिताऽतिशयान्वितः । प्रातिहार्यरनन्तादिचतुम्कन युतो जिनः। -भावकाचारसंग्रह (भाग-१) धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ७१७ (ख) जनधर्मामृत, २०७३.७६ (ग) नेमिचन्द्र मुनि, दम्यसंग्रह, ३५. ५. (क) श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह भावकाचार, ७११६ (ब) जनधर्मामृत, २७७-७९ (ग) नेमिचन्द्र मुनि, व्यसंग्रह, २०५१
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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