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________________ महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-काम्य-ग्रन्यों के संक्षिप्त कपासार उन दोनों का सरल स्वभाव वाला मदमित्र नामक एक पुत्र हुमा। एक बार उसके मित्रों ने उसे समझाया कि वैश्यों को व्यावसायिक वृत्ति वाला होना चाहिए; अपनी आजीविका को चिन्ता पुरुष को स्वयं करनी चाहिए। प्रतएव जीवन-यापन हेतु, धनार्जन करने के लिए हमें रत्न-द्वीप जाना चाहिए । उन्हीं मित्रों में से एक मित्र ने इस सम्बन्ध में एक कथा भी सुनाई, जो इस प्रकार है : वित्तीय सर्ग भारतवर्ष के मध्य में सुन्दर, उच्च-शिखरों वाला, विजयाच पर्वत है। पर्वत के उत्तर में भूमि को पलंकन करने वाली अलका नाम की नगरी है।। एक समय उस नगरी में प्रत्यन्त यशस्वी, महाकच्छ नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम दामिनी वा मोर पुत्री का नाम प्रियङगुश्री था। जब वह पुत्री युवती हुई तो राजा को उसके विवाह की चिन्ता हुई। एक ज्योतिषी ने बताया कि 'सुशील स्वभाव वाली प्रियङगुश्री का . विसाह स्तम्बकगुच्छ के महादानी राजाधिराज ऐरावण के साथ होगा। यह सुनकर महाकच्छ ने स्तबक गुच्छ नगरी के राजा ऐरावण की परीक्षा ली और अपनी पुत्री के लिए उसे योग्य समझकर, उससे अपनी कन्या के साथ विवाह करने का निवेदन किया। ऐरावण ने स्वीकृति दे दो और प्रियंगुश्री को स्तबकगुच्छ में लाने के लिए कहा। राजा महाकच्छ प्रियङ्गुश्री को अलकापुरी से स्तबक गुच्छ ला रहा था, मार्ग में प्रियङ्गुश्री से विवाह करने के इच्छुक वज्रसेन नामक एक अन्य पुरुष से उसकी मुठभेड़ हो गई। यह बात ऐगवरण के कानों में भी पहुँच गई। उसने शीघ्रता से प्राकर वज्रसेन को पराजित किया और प्रियङगुश्री के साथ विवाह कर लिया। वज्रसेन ने निराश होकर, जिनदीक्षा लेकर, ऊपरी मन से तपस्या करनी शुरू कर दी। एक बार ताश्चरण के मध्य ही जब वह स्तबकगुच्छ नगर पहुंचा तो वहां के लोगों ने उसे डंडों से खूब पीटा। फलस्वरूप क्रोधित होकर वनसेन ने अपने बाये कन्धे से निकले तेजस पुतले से सारे नगर को जला दिया। स्वयं भी जलकर भस्म हो गया और नरक पचा। प्रतएव वज्रसेन के समान दूसरों को मिली वस्तुप्रों पर प्रधिकार जमाने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। तृतीय सर्ग मित्र द्वारा कथित कथा से भद्रमित्र बहुत प्रभावित हमा। मित्रमण्डली को छोड़कर वह घर पहुंचा और दूसरे देश जाने के लिए पिता से प्राज्ञा मांगी। पिता ने उत्तर दिया--'मेरी तो स्वयं की इतनी अधिक माय है कि तुम्हें धनार्जन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। फिर तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो, इसलिए तुम्हारा जाना मेरे लिए कष्टप्रद होगा।'
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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