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महाकवि मानसागर के काव्य--एक अध्ययन स्वरूप बताया भोर समझाया कि पुरुष को जितेन्द्रिय बनने के लिए निम्नलिखित एकादश नियमों का अवश्यमेव पालन करना चाहिए :(नं० एक) पुरुष को उत्तेजक, ममश्य, अनुपसेव्य, त्रसबहुल पदार्थों को नहीं
खाना चाहिए। (नं० दो) प्रतिषिसत्कारपरायणता और सदाचार का पालन करना
चाहिए। (नं० तीन) माजीवन प्रभात, मध्याह्न भोर सायंकाल में भगवान् का स्मरण
करना चाहिए। (नं० गार)
प्रत्येक पर्व में विधिसहित उपवास करना चाहिए । (नं. पांच) प्रत्येक पदार्थ कों पकाकर खाना चाहिए । (i• छः) दिन में दो बार से ज्यादा भोजन नहीं करना चाहिए। हो सके
तो एक बार ही करें । रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए । (२० सात)
काम-सेवन का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। (मं० पाठ)
इन्द्रिय-विषयों पर नियन्त्रण पांकर पात्मिक गुणों की प्राप्ति के
लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । (नं० नौ) शरीर और प्रात्मा की सत्ता पृथक्-पृथक् स्वीकार करके पूर्वोपार्जित
धन इत्यादि का परित्याग करना चाहिए । (न० दश)
सांसारिक.कार्यों से मन को हटाकर, सम्पूर्ण समय परमतत्त्व का
चिन्तन करना चाहिए। (i• ग्यारह) अपने प्राचार की सिद्धि के लिए मन को लोक-मार्ग में नहीं
लगाना चाहिए। सुदर्शन से धर्म का स्वरूप जानकर और शुभाशीर्वाद पाकर, देवदत्ता का तो सारा मोह नष्ट हुमा ही, पण्डिता दासी का भी प्रज्ञान दूर हो गया। प्रतः वे. दोनों ही सुदर्शन से दीक्षा लेकर 'पार्यिका' बन गई।
देवरता को उपदेश देकर सुदर्शन भी श्मशान में जाकर मात्मध्यान में लीन हो गए । एक दिन विहार करती हुई व्यन्तरी देवीरूपधारिणी, पात्मघातिनी रानी समयमती ने सुदर्शन को देख लिया। वह कोष में भरकर उनसे अपशब्द कहने लगी। उसने सुवर्शन के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया। किन्तु अपनी बिनश्वर देह के ऊपर होने वाले प्रत्याचार की चिन्ता न करके वह अजर एवं प्रमर मात्मा के प्रति चिन्तन करने लगे। इस अवस्था में सुदर्शन का रहा-सहा भी राग-द्वेष समाप्त हो गया । तत्पश्चात् उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया और सभी बाह्य कर्मों के क्षीण हो जाने से उन्हें मोम भी मिल गया।
प्रथम सर्ग भारतवर्ष में श्रीपाखण्ड नामक एक नगर है। प्राचीनकाल में उस नगर में सुबत्त नाम का एक वैश्य निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम सुमित्रा था।