SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ प्रतुति - महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन " प्रकृतं यन्निषिध्यान्यत्साध्यते सा त्वपह्नुतिः ॥ " - काव्यप्रकाश, १०१६६ कविवर ज्ञानसागर द्वारा अपहनुनियाँ भी कम चमत्कारिणी नहीं हैं । लीजिए, प्रस्तुत हैं उनकी कुछ सुन्दर प्रपह्नुतियाँ - सुलोचना के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुये जयकुमार कहते हैं " जातं जिवं मुखेन तव सुकेशि साम्प्रतमसुखेन । मूर्ध्नि मिलिन्दावलिच्छलेन कृपारणपुत्रीं क्षिपदिव तेन ।। " देखिये- —जयोदय, १४।४७ ( हे सुन्दर बालों वाली ! तुम्हारे मुख के द्वारा कीचड़ में उत्पन्न कमल जीत लिया गया है । इसीलिए दुःखी होकर वह इस समय तुम्हारे सिर पर धुंघराले की पङ्क्ति के बहाने से मानों तलवार का प्रयोग कर रहा है ।) प्रस्तुत श्लोक में सुलोचना के सिर पर विद्यमान घुंघराले बालों का निषेध करके वहाँ पर तलवार का स्थापन किया गया है, इसलिए प्रपह्नुति अलङ्कार है । अब शरत्कालीन प्राकाश-वर्णन में प्रपनुति का सुन्दर प्रयोग देखिये"तारापदेशान्मणिमुष्टिवारात्प्रतारयन्ती विगताधिकारा । सोमं शरत्तम्मुखमीक्षमाणा रुषेयं वर्षा तु कृतप्रयाणा ॥ " -- वीरोदय, २२।१ ( चन्द्रमा को शरद ऋतु के सम्मुख देखती हुई अपने अधिकार से वंचित वर्षा ऋतु मानों रुष्ट होकर तारों के बहाने से मुट्ठी में भरी हुई मणियों को फेंक कर प्रतारणा करती हुई चली गई ।) 1 वर्षाकाल में प्राकाश मेघाच्छन्न रहता है, उस समय चन्द्रमा या तारे कोई भी वस्तु नहीं दिखाई देती । शरत्काल में प्राकाश स्वच्छ हो जाता है, प्रत: तब प्रकाश में चन्द्रमा श्रोर तारे दिखाई देते हैं । कवि ने इस प्रस्तुत वात का निषेध करके अब तक चन्द्रमा वर्षा के अधिकार में था और तारे उसकी मुट्ठी में थे, किन्तु शरत्काल के आने से चन्द्रमा वर्षा के अधिकार में न रहा, तब क्रोध में प्राकर तारों के बहाने से मुट्ठी में भरी मणियों को भी उसने फेंक दिया- इस प्रप्रस्तुत का विधान किया है। तारों के स्थान पर मणियों का स्थापन होने के कारण अपह्नुति अलङ्कार है । राजा अपराजित द्वारा ऋषि की पूजा में बरिणत प्रपहनुति का चमत्कार
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy