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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष
३२३ "समुद्गमद्भगभरावदेशापात्तपापोन्वयसम्विलोपी। यस्म किलारामबरेण हर्षवारेण पुष्पाञ्जनिरपितोऽपि ॥"
-श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६.३२ (जब उन ऋषिराज के लिए उस श्रेष्ठ उद्यान द्वारा हर्षित होकर पुष्पाअलि अर्पित की गई, तब मँडराते हुये भ्रमरसमूह के बहाने उस बगीचे पूर्वोपाजित पाप के अंश भी विलीन होने लगे।)
प्रस्तुत श्लोक में पुष्पों के साथ ही रहने वाले भ्रमर उद्यान में इधरउपर मंडरा रहे थे, इस प्रकृत वस्तु का निषेध करके-कवि ने--पापसमूह विलीन हो रहा पा-इस मप्रस्तुत वस्तु का स्थापन किया है, इसलिए यहाँ पर अपनुति प्रसङ्कार है। अर्थान्तरन्यास
"सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समयते । यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधम्र्येणेतरेण वा ॥"
--काव्यप्रकाश, १०1१०६ श्रीज्ञानसागर को जब भी कुछ तथ्य प्रस्तुत करना होता है, तब वह इसी अलङ्कार का अवलम्बन ले लेते हैं। किसी व्यक्ति की निन्दा करने में, स्तुति करने में, उपदेश देने में मोर विनम्र निवेदन करने में इस अलङ्कार के सुन्दर-सुन्दर प्रयोग कवि के काव्यों में दृष्टिगोचर होते हैं। सम्राट् भरत की प्रशंसा में प्रर्थान्तरन्यास का उदाहरण देखिये
"शुचिरिहास्मदधीद्धरणीधर ! सति पुनस्त्वयि कोऽयमुपद्रवः । तपति भूमितले तपने तमः परिहती किमु दीपपरिश्रमः ।।"
-दयोदय; ७३ (सुमुख नामक दूत सम्राट् भरत से कहता है-हे सम्राट् जब पापका शासन है, तब (मर्ककीति की दुश्चेष्टा रूप) यह उपद्रव कैसा ? अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्य के इस परातल पर तपते समय दीपक का परिश्रम व्यर्थ है।)
यहाँ प्रथम-पंक्ति में वरिणत विशेष का द्वितीय पंक्ति में वणित सामान्य द्वारा समर्थन किया गया है । अतएव अर्थान्तरन्यास प्रलङ्कार है। सामान्य से विशेष के समर्थन का दूसरा उदाहरण देखिये
"कवितायाः कविः कर्ता रसिकः कोविदः पुनः । रमणीरमणीयत्वं पतिर्जानाति नो पिता ॥"
-जयोदय, २८३ (कवि कविता का प्रणेता होता है, किन्तु सहृदय उसका अर्थ जानने वाला होता है । सुन्दर स्त्री के सौन्दर्य को पति जानता है, उसका पिता नहीं।)
___ यहाँ पर द्वितीय पंक्ति में सामान्य बात कही गई है जो कि प्रथम पंक्ति में प्रस्तुत बात की सपिका है । प्रतएव अर्थान्तरन्यास मलकार है।