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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य
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मनुष्यों के दांत बज रहे हैं। लोग सामने प्रग्नि और पीठ में सूर्य का सेवन साथसाथ करने की इच्छा करते हैं । शीतकाल के कारण, हिरण हाथी, सिंह इत्यादि जीव भी अपनी चेष्टाम्रों में प्रवृत्त नहीं हो पा रहे हैं । "
- एक प्रध्ययन
कविवर ज्ञानसागर की कृतियों के ऋतुवर्णन के परिशीलन से हमें उनके प्रकृति प्रेमी - कवि होने का वास्तविक ज्ञान हो जाता है । शरद् ऋतु और वसन्त ऋतु के वन में जहाँ हम प्रकृति को सुकुमारता पाते हैं, वहाँ ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति की भयंकरता का भी दर्शन होता है । वैसे तो शरत्कालीन आकाश की प्राभा ही ऐसी निराली होती है कि अनायास ही दर्शक को वह प्रपनी ओर खींच लेती है, किन्तु महाकवि श्रीज्ञानसागर जी ने नवविवाहिता स्त्री के रूपक द्वारा शरत्काल का जो उत्प्रेक्षापरक चित्र खींचा है, वह भी सहृदय पाठकों के लिए नयनाभिराम बन गया है । कवि का ग्रीष्म-वर्णन भी यायातथ्य से परिपूर्ण है। साथ ही उत्प्रेक्षात्रों से सुसज्जित होने के कारण, भयंकर होते हुए भी सुधी जनों को प्रानन्दित करके उसे सहस्ररश्मि सूर्य के प्रचण्ड प्रताप से अवगत कराने में भी समर्थ है ।
काल-वर्णन
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यह संसार परिवर्तनशील है । यहाँ विद्यमान पदार्थों की एक सी दशा नहीं रहती । मनुष्य सुख, सुखातिशय, सुख-दुःख का सम्मिश्रण, दुःख इत्यादि को समयसमय पर प्राप्त करता है। इसी प्रकार प्रकृति का स्वरूप भी परिवर्तनशील है, कभी प्रकृति-नटी के नीलाम्बर में सूर्योदय होता है, कभी चन्द्रोदय । प्रतिदिन प्रकृति प्रभात, दिवस, सन्ध्या और रात्रि इन चार अवस्थाओं से होकर गुजरती है । प्रकृति प्रेमी श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में प्रकृति को इन चारों ही दशाओं का वर्णन कथा प्रसंग के अनुसार किया है । सर्वप्रथम प्राशा का संचरण करने वाले प्रभात का वर्णन प्रापके समक्ष प्रस्तुत है
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प्रभात-वर्णन -
श्रीज्ञानसागर ने अपनी दयोदय, सुदर्शनोदय मौर जयोदय नामक तीन कृतियों में प्रभातवर्णन किया है । क्योदय में यह प्रसङ्ग उस समय मिलता है, जब रात्रि में गुणपाल के कहने से एक चाण्डाल सोमदत्त को मारने के लिए एक नदी के तीर पर ले भाता है, पर दया उत्पन्न हो जाने के कारण उसे वहीं छोड़कर चला • जाता है । जब रात्रि बीत जाती है तो गुणपाल के इस नृशंस कार्य की सूचना सारे संसार को देने के लिए ही मानों मुर्गे शब्द करने लगते हैं। रात्रि की समाप्ति पर नक्षत्र विलीन हो गए हैं; कमलिनी विकसित हो गई है; मनुष्य लोग निरपराध छोटे-छोटे बालकों को मारने के व्यापार में प्रवृत्त है, इसीलिए भगवान् सूर्य मानों
१. बीरोदय ६।१८-४५