SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन - कौशल २१६ क्रोध से लाल होकर सहमा प्रकट हो गये हैं । मनुष्यों द्वारा किये जाते हुए इस प्रथम कार्य को देख पाने में प्रसमर्थ होकर ही मानों कुमुदवती ने अपने नेत्र वन्द कर लिये हैं । जिस प्रकार कांग्रेस का उदय होने पर भारतवर्ष से अंग्रेजी राज्य का अवसान हो गया, उसी प्रकार सूर्य के उदय होने पर पृथ्वी से प्रन्धकार भी विलीन हो गया है। प्रातःकालीन पक्षिगणों के कलरव के सम्बन्ध में कवि की यह सुन्दर उद्भावना द्रष्टव्य है : "तेजोभर्तुस्तमोहर्तुः प्रभावमभिकांक्षिणः । विरुदावलीमप्यूचुरचारणा इव पक्षिणः ।। " ( दयोदय, ३1८) अर्थात् जिस प्रकार शत्रुनों का नाश करने वाले राजा की स्तुति चारण इत्यादि गाते हैं, उसी प्रकार अन्धकार का विनाश करने वाले सूर्य रूप राजा की ये पक्षिगण स्तुति करने लगे । पुरुष लोग अपनी स्त्रियों के कोमल भुजबन्धन से निकलकर यथेच्छ रूप से इधर-उधर वैसे ही जाने लगे, जैसे कमलनाल से निकलकर भ्रमर इधर-उधर घूमने लगते हैं । सुदर्शनोदय में कवि ने प्रभात-वर्णन जिनेन्द्रदेव की प्रातःकालीन उपासना के समय गाए जाते हुए भजनों के माध्यम से किया है : अरे ! देखो यह प्रभातवेला उपस्थित हो गई है, जन्ममरणरूप सांसारिक कष्ट को दूर करने वाले जिनेन्द्रदेव रूपी भास्कर के उदय से पापपूर्ण रात्रि, शुभचेष्टावली इस भारतभूमि से न जाने किधर को चली गई है । शुभप्रकाश वाले चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर प्रकाश में तारे नहीं दिखाई दे रहे हैं । प्रभात - समय में प्रकाश में पक्षिगण इधर-उधर घूम रहे है । ब्राह्मण लोग स्नानादिक दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर देवपूजन के लिए कमलों को तोड़ रहे है । इस प्रभातकाल में गुलावादि पुष्पों के ऊपर मंडराते हुए भ्रमरों की मलिन कान्ति दृष्टिगोचर हो रही है । प्रत: इस बेला में, भूमण्डल में प्रजा की शान्ति के लिए भगवान् जिनदेव के चरणों की वन्दना करनी चाहिए। जयोदय में श्रीज्ञानसागर ने जव जयकुमार सुलोचना के साथ गङ्गा नदी तट पर ठहरते हैं, वहाँ के, प्रभात का बड़े विस्तार के साथ, सुन्दर भौर स्वाभाविक वर्णन किया है। प्रापके सामने स्थालीपुलाकन्याय से उस वर्णन से सम्बन्धित कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :: १. दयोदय, ३ श्लोक ७ के बाद के गद्यभाग से श्लोक १० के बाद के गद्यभाग तक । २. सुदर्शवोदय, ५। प्रथम गीत ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy