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________________ २२० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (क) 'यात्येकतोऽपि तु कुतोपि विरज्य राज न्यात्माधिपे परदिशां प्रतियाति राजन् । सत्पुष्पतल्पमसको रजनी दलित्वा रोषारणा विकृतवाग्भरतश्छलित्वा ।। (जयोदय, १८३२) प्रभातकाल में एक प्रोर तो रागरहित चन्द्रमा प्रस्थान कर रहा है, पौर दूसरी मोर सूर्य भी पूर्वदिशा में पहुंच रहा है। इस समय रात्रि वंचिता होने के कारण पुष्पशय्या को बिदलित कर रही है और क्रोध से लाल हो रही है। (ब) "निस्नेहजीवनतयापि तु दीपकस्य संशोच्यतामुपगतास्मि दशा प्रशस्य । संघूय॑मानशिरसः पलितप्रभस्य यद्वन्मनुष्यवपुषी जरसान्वितस्य ।।' (जयोदय, १८॥३७) प्रातःकाल के समय, तेल से रहित होने से हिलती हुई शिखा वाला, मणिक कान्ति वाला, सुन्दर दीपक शोचनीय-दशा को प्राप्त हो गया है, जैसे प्रेम से रहित, जीवन के थोड़ा प्रवशिष्ट रहने से, हिलते हुए शिर वाला, श्वेत वालों वाला भोर वृद्धावस्था से पीड़ित मनुष्य शोक का विषय हो जाता है। (ग) 'नर्मल्यमेति किल धोतमिवाम्बरन्तु स्नाता इवात्र सकला हरितो भवन्तु । प्राग्भूभतास्तिलकवद्रविराविभाति चन्द्रस्तु चोरवदुदास इतः प्रयाति ॥' (जयोदय, १८१६३) इस समय धुले वस्त्र के समान माकाश स्वच्छ हो गया है। दिशाएं ऐसी लग रही हैं, मानों उन्होंने स्नान किया हो । पूर्वदिशारूपी राजा के तिलक के समान सूर्य सुशोभित है, और चन्द्रमा चोर के समान उदास होकर माकाश से प्रस्थान कर (जयादा दिवस-वर्णन दिवस-वर्णन केवल वीरोदय में मिलता है, वह भी अत्यन्त संक्षिप्त पौर केवल दो स्थलों पर। ग्रीष्म-वर्णन के प्रसङ्ग में कवि ने दिनों की दीर्घता पर उत्प्रेक्षा की है : "प्रयात्यरातिश्च रविहिमस्य दरीषु विषम्य हिमालयस्य । नो चेत्क्षणक्षीणविचारवन्ति विनानि दीर्षाणि कुतो भवन्ति।।" (वोरोक्य, १२।२०)
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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