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________________ ४२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन सुदर्शन के गले में तलवार का प्रहार किया, वैसे ही वह प्रहार, हार बनकर सुदर्शन के गले में सुशोभित होने लगा । यह वृत्तान्त जब राजा को ज्ञात हुआ तो वह क्रुद्ध होकर स्वयं ही सुदर्शन को मारने के लिये उद्यत हो गया। लेकिन जैसे ही उसने सुदर्शन को मारने के लिए तलवार हाथ में ली, वैसे ही प्राकाशवाणी हुई कि - ' यह अपनी स्त्री मनोरमा से ही परमसन्तुष्ट, जितेन्द्रिय तथा सब प्रकार से निर्दोष है। दोषी तो तुम्हारे ही घर का है । प्रतएव उचित प्रकार से दोषी का निरीक्षण करो । इस प्राकाशवाणी को सुनते ही राजा का सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया । वह सुदर्शन की भांति-भांति से स्तुति करके, उसके चरण पकड़कर अपने स्थान पर उसी से राज्य करने का निवेदन करने लगा । राजा की बात को सुनकर सुदर्शन ने कहा- 'राजन् मेरे प्रति जो कुछ भी हुआ है, उसमें प्रापका कोई दोष नहीं है। यह तो सब मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों का फल है । भाप तो मुझ अपराधी को दण्ड ही दे रहे थे, जो आपके लिए उचित था । किन्तु मैं किसी को भी अपना शत्रु या मित्र नहीं समझता हूँ। इसलिए इस घटना का मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। महारानी और श्राप तो मेरे माता-पिता हैं । श्रतः प्रापने मेरे साथ यथोचित व्यवहार किया है। मैं तो समझता हूँ कि प्रत्येक पुरुष को चाहिए कि वह मोक्षप्राप्ति हेतु धेय्यंयुक्त होकर मद-मात्सर्य का परित्याग करे । प्राणी स्वानुभूति विषयक सुख-दुःख का स्वयं उत्पादक है । अन्य कोई उसे न तो सुख देता है और न दुःख । प्रतएव मनुष्य को सुखः दुःख में एक सी अवस्था धारण करनी चाहिए । सुख श्रात्मा की अनुभूति का विषय है । वह राज्य प्राप्त करके नहीं मिल सकता । अतएव राज्य तो श्राप स्वयं करें। मुझे तो अब केवल मोक्ष की चिन्ता करनी है । इस घटना के धनन्तर सुदर्शन ने वैराग्य लेने का निश्चय कर लिया। घर जाकर अपना यह निश्चय उसने मनोरमा को भी सुनाया। उसने विचार किया कि विष्णु भोर शंकर को भी डिगाने वाली, सज्जनता का विनाश करने वाली, पापोत्पादक इस सांसारिक माया का परित्याग करना ही चाहिए। मनोरमा ने उसकी इच्छा का समर्थन करते हुए स्वयं भी उसी के मार्ग का अनुसरण करने की इच्छा प्रकट कर दी। मनोरमा के वचन सुनकर, सुदर्शन ने जिनालय में जाकर प्रसन्नतापूर्वक भजन-पूजन प्रोर भगवान् का अभिषेक किया और वहीं पर स्थित विमलवाहन नामके योगीश्वर के दर्शन किए। योगीश्वर को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके, उनकी हार्दिक स्वर से स्तुति करके सुदर्शन वहीं दिगम्बर मुनि बन गया। मनोरमा ने भी सर्वपरिग्रह का परित्याग करके प्रार्बिका व्रत को मपना लिया ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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