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महाकवि जानसागर के काव्य-एक अध्ययन
किया है । उनका यह कला-प्रयोग काव्य में किसी भी प्रकार का असन्तुलन नहीं लाता, अपितु भावपक्ष को सबल बनाता है।
कवि के पांचों काव्य पूर्णतः अलङ्कत हैं, किन्तु उनकी यह पलङ्कारप्रियता कहीं भी रसरङ्ग का कारण नहीं है । उनके अनुप्रास, इलेष, यमक इत्यादि अलङ्कार बण्यं विषय के अनुरूप हैं; और चित्रालङ्कार न केवल कवि के मलङ्कारशास्त्रीयज्ञान के परिचायक हैं, मपितु कषा के सार रूप में भी प्रस्तुत हुये हैं।
उनके गीत उनको सङ्गीत-प्रियता के द्योतक हैं, साथ ही भक्तिभाववर्णन समय इन गीतों के प्रयोग से कवि के हृदयोद्गारों को भी प्रकट होने में सहायता मिलती है । गुण, भाषा, शैली, वाग्वेदाध्य, देशकाल इत्यादि सभी के प्रयोग में कवि को स्पहणीय सफलता मिली है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे कवि का कलापम भावपक्ष के सर्वथा अनुरूप है। वह कहीं भी पाण्डित्य प्रदर्शन का साधन मात्र होकर नहीं पाया है। प्राः यदि हम कहें कि कवि श्री ज्ञानसागर ने भावपक्ष प्रौर क नाम के माणकाञ्चन संयोग को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है, तो कोई प्रत्युक्ति नहीं हापो।