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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के संक्षिप्त कथासार २१ प्रकम्पन को चिन्तित देखकर जयकुमार ने उन्हें धीरज बंधाया और सुलोचना की रक्षा करने के लिए कहा । तत्पश्चात् जयकुमार प्रकीति से युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हो गये । यह देखकर अकम्पन भो अपने हेमाङ्गद इत्यादि पुत्रों सहित युद्ध के लिए चल पड़े । श्रीधर, सकेतु, देवकीर्ति इत्यादि राजाओं ने भी जयकुमार का अनुसरण किया । जयकुमार की सेना सुसज्जित होकर प्रकीति का विरोध करने के लिए चल पड़ो। अर्क कीर्ति भी अपनी सेना को युद्धक्षेत्र में ले प्राया। प्रककीति ने चक्रब्यूह की और जयकुमार ने मकरव्यूह की रचना की। अष्टम सर्ग दोनों सेनाएँ परस्पर एक दूसरे को युद्ध के लिए ललकारने लगीं । सेनापति की प्राज्ञा सुनकर युट का नगाड़ा बजा दिया गया, जिसकी ध्वनि से प्रौर सेना द्वारा उठाई गई धूलि से दिशाएँ व्याप्त हो गई। गजारोही, रथारोही और प्रश्वारोही परस्पर युद्ध करने लगे । जयकुमार तथा उसके अन्य भाइयों ने एवं हेमाङ्गद मादि काशीनरेश के पुत्रों ने प्रतिपक्षियों का डटकर सामना किया। इसी बीच रतिप्रभदेव ने पाकर जयकुमार को नागपाश मौर अर्द्धचन्द्र नाम का बाण दिया । जयकुमार ने इन दोनों वस्तुओं से प्रकीर्ति को बांध दिया। इस प्रकार जयकुमार की विजय हुई। युद्ध से लौट कर काशीनरेश प्रकम्पन ने सुलोचना को जयकुमार के विजयी होने की सूचना दी और व्रत को पारणा करने का वात्सल्यपूर्ण प्रादेश दिया । इसके पश्चात् सब लोगों ने जिनेन्द्रदेव की पूजा की। नवम सर्ग जयकुमार के विजयी हो जाने पर भी राजा अकम्पन को चिन्ता हुई। उन्होंने विचार किया कि अपनी दूसरी पुत्री प्रक्षमाला का विवाह प्रकीति से कर दिया जाय । उन्होंने बांधे गये प्रकीति को कोई दण्ड नहीं दिया। उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे समझाया; और प्रक्षमाला को स्वीकार करने के लिए कहा। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जयकुमार अपराजेय है । फिर जयकुमार का कोई अपराध भी नहीं है । जयकुमार ने भी अर्ककोति से प्रीतियुक्त विनम्र वचन कहे । काशीनरेश के प्रयत्न से जयकुमार और अकीर्ति की पुनः सन्धि हो गई। तत्पश्चात् काशीनरेश (मकम्पन) ने सुमुख नामक दूत को भरत के पास भेजा । सुमुख ने काशीनगरी का वृत्तान्त बड़ी नम्रतापूर्वक सम्राट् भरत से कहा; काशीमरेश की मोर से क्षमायाचना की। सम्राट भरत ने राजा प्रकम्पन पोर जयकुमार के प्रति प्रशंसात्मक वचन कहे । सम्राट भरत के वचनों से सन्तुष्ट होकर दूत ने उनकी वन्दना की और काशी माकर उसने अयोध्या में हुई वार्ता को काशीनरेश के सम्मुख प्रस्तुत किया।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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