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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य -1 दशम सर्ग
तत्पश्चात् काशीनरेश प्रकम्पन के यहाँ पाणिग्रहण की तैयारी होने लगी । जयकुमार को दूत द्वारा बुलाया गया। सारी नगरी को सजाया गया । तरह-तरह के बाजे बजने लगे । सुलोचना ने स्नान करके उज्ज्वल वस्त्रों और मनेक प्राभूषणों को धारण किया और पिता के पास जाकर सिर झुका कर उन्हें प्रणाम किया ।
जयकमार जब बारात सजाकर नगर मार्ग में निकले तो प्रजाजन उनकी शोभा देखने में लीन हो गये । राजद्वार में पहुंचते ही बन्धुनों द्वारा प्रादरपूर्वक जयकुमार को मण्डप में लाया गया। सुलोचना भी मण्डप में लाई गई । जयकुमार मोर सुलोचना ने एक दूसरे को देखकर हर्ष का अनुभव किया।
एकादश सर्ग
जयकुमार ने सुलोचना के रूप-सौन्दर्य का अवलोकन किया । वह सुलोचना के रूप से प्रत्यधिक प्रभावित हुप्रा ।
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- एक प्रध्ययन
द्वादश सर्ग
जिनेन्द्रदेव के पूजन साथ-साथ सुलोचना के विवाह का कार्य होने लगा । जयकुमार और सुलोचना से भी जिनेन्द्रदेव का पूजन कराया गया । पुरोहित के निर्देश से काशीनरेश ने अपनी पुत्री के हाथ का अंगूठा जयकुमार के हाथ में दे दिया । प्रसन्नता के इस अवसर पर उन्होंने धन की वर्षा सी कर दी और दहेज में कोई कभी न रहने दी । यज्ञवेदी की प्रग्नि का धुआं चारों प्रोर फैल गया । तत्पश्चात् वेदी के चारों मोर सप्तपदी की रीति को सम्पन्न किया गया । अनेक उपस्थित प्रजाजनों के सम्मुख गुरुजनों ने वर-वधू को प्राशीर्वाद दिया। महिलाओं ने अनेक सौभाग्य-गीत गाये | दासियों एवं स्त्रियों ने हास-परिहास के साथ बरातियों को भोजन कराया । काशीनरेश ने जयकुमार एवं वरपक्ष के अभ्यागतों का प्रत्यधिक सत्कार किया।
त्रयोदश सर्ग
विवाह के पश्चात् जयकुमार ने काशीनरेश से अपने नगर जाने की प्राज्ञा माँगी। सुलोचना के माता-पिता ने सुलोचना एवं जयकुमार को मश्रुपूर्ण नेत्रों से विदा किया। दोनों उन्हें छोड़ने समीपस्थ तालाब तक गये । सुलोचना के भाई भी सुलोचना के साथ थे | जयकुमार के सारथि ने मार्ग में स्थित वन मोर गंगानदी के वर्णन से जयकुमार का मनोरञ्जन किया । राजहंसों से सेवित एवं कमलिनियों सुन्दर बनी हुई गंगा नदी में गजराज जल-क्रीड़ा कर रहे थे। जयकुमार ने उसी के तट पर सेना सहित पड़ाव डाल दिया ।
चतुर्दश सर्ग
जयकुमार - सुलोचना एवं उनके अन्य साथियों ने वहाँ पर बहुत समय तक