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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्यों के संक्षिप्त कथासार
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बनकोड़ा, जलक्रीड़ा एवं मधुर मालाप इत्यादि से अपना मनोरञ्जन किया। गंगा नदी के जल में स्नान करने के पश्चात् जिस समय उन सबने नवीन वस्त्र धारण किये, उस समय सूर्य प्रस्त होने को था।
पंचदश सर्ग सूर्य के प्रस्त होने पर क्रमशः सन्ध्या का प्रागमन हमा। तत्पश्चात् रात्रि का घोर अन्धकार चारों मोर फैल गया; फिर चन्द्रमा का उदय हुा । ऐसे समय में स्त्री-पुरुष परस्पर विहार करने लगे।
षोडश सर्ग रात्रि के मध्य में स्त्री-पुरुषों का धैर्य समाप्त हो गया । परस्पर हास-विलास करते हुये उन्होंने मद्यपान शुरु कर दिया। मद्यपान से उनकी चेष्टायें विकत हो गई; नेत्र लाल हो गये। स्त्री-पुरुषों में परस्पर मान, अभिमान पोर प्रेम का व्यवहार होने लगा।
सप्तदश सगं सभी युगल एकान्त स्थानों में चले गये। जयकमार-सुलोचना एवं अन्य स्त्री-पुरुषों ने सुरतक्रीड़ाएं की। अर्द्धरात्रि के समय उन सबने निद्रादेवी की गोद में विश्राम लिया।
अष्टादश सर्ग शुभ प्रभात हा । नक्षत्र विलीन हो गये । चन्द्रमा प्रस्त हो गया। भुवनभास्कर का उदय हुप्रा । लोग निद्वारहित होकर अपने-अपने काम में लग गये।
एकोनविश सर्ग प्रातः काल जयकुमार ने स्नानादि क्रियायें की। तत्पश्चात् वह जिनेन्द्रदेव को पूजा में संलग्न हो गया और उसने बहुत समय तक श्रद्धापूर्वक जिनेन्द्रदेव की स्तुति की।
विशतितम सर्ग इसके बाद जयकुमार ने सम्राट भरत से भेंट करने की इच्छा से अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुँचकर सभाभवन के सिंहासन में बैठे हुये सम्राट को उसने प्रणाम किया। सम्राट् भरत के वात्सल्यपूर्ण वचनों से प्राश्वस्त होकर जयकुमार ने क्षमा-याचना पूर्वक सुलोचना-स्वयंवर का सारा वृत्तान्त कहा । उसके वचन सुनकर सम्राट ने अपने पुत्र अकंकीति को हो दोषी ठहराया; उन्होंने प्रक्षमाला और अर्ककोति के विवाह का कार्य करने हेतु काशीनरेश भकम्पन के प्रति प्रशंसात्मक बचन कहे । सम्राट् से सत्कत होकर जयकुमार उनसे अनुमति लेकर, हाथी पर सवार होकर अपनी सेना की मोर चल पड़ा । मार्ग में गंगा नदी में एक बड़ी मछली ने जयकुमार का अपहरण करने की इच्छा से उसके हाथी को पकड़ लिया। यह देखकर जयकुमार अत्यधिक व्याकुल हुआ।