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१. हित-सम्पादकम् यह काव्य मिथ्या रूढ़ियों का खण्डन करता है। क्रिया-काण्डियों की अविचारित | गतानुगतिकताओं के विरुद्ध इस काव्य में क्रान्तिकारी घोषणा की गयी है । जातीयता के अहंकार के मद में डूबने वाले अहंकारियों के लिए अहंकार का खण्डन करने वाला है । व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है । व्यक्ति को पापी से नहीं, पाप से घृणा करनी चाहिए । इन सूत्रों को ध्यान में रखकर इस काव्य की रचना हुई है । आज के आधुनिक तर्कशीलं व्यक्तियों के लिए यह काव्य बहुत ही पसन्द आयेगा । चारों पुरुषार्थो का सटीक वर्णन इस काव्य में है । सामाजिक एवं पारिवारिक रीति-रिवाजों को भी इस काव्य में समाविष्ठ किया गया है । इस काव्य की मुख्य विशेषता है कि अपनी तर्कणाओं की पुष्टि कवि ने पूर्वाचार्यो द्वारा आगम में कथित सटीक उदाहरण देकर की है । जाति के मद में डूबने वाले लोगों ने आगम में कथित जिन बातों को गौण कर दिया था, कवि ने उन बातों को निर्भीक होकर प्रस्तुत कर दिया है । यह लघु काव्य क्रान्तिकारी है एवं मिथ्याकुरीतियों का निराकरण और सम्यक् रीति-रिवाजों की स्थापना करने वाला है । इस काव्य में 159 श्लोक हैं।
यह ग्रन्थ भी महाकवि ज्ञानसागर जी के द्वारा दीक्षा के पूर्व लिखा गया था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । हिन्दी - साहित्य
___10. भाग्य परीक्षा जैन दर्शन में कथित धन्य कुमार के प्रसिद्ध कथानक के आधार पर इस काव्य को रचा गया है । इस काव्य का काव्यनायक धन्य कुमार है, जिनका जीवन आत्मीयजनों की प्रतिकूलता में पल्लवित होता है । फिर भी अपने पुण्य के कारण अपने प्रतिद्वन्दियों के लिये यह सबक सिखाता है कि जिनके भाग्य में पुण्य की सत्ता है, उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है । कर्तव्य परायणता एवं परोपकार जीवन का धर्म है । सत्यवादिता एवं सहिष्णुता जीवन का प्राण है । त्याग ही जीवन का व्यसन है एवं कर्मठता मानवीय गुण है । इस समस्त बातों के लिए महाकवि ने इस काव्य में वर्णन करके असहिष्णु मानव के लिए शिक्षा दी है । इस काव्य |में 838 पद हैं।
इस काव्य को आचार्य ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा । ब्रह्मचारी अवस्था में आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था ।
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