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________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना वैसे ही उसके मन में भी विरक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह भी उन मुनि से अपने हृदय की दुर्बलता का निवेदन करता है। कपिल ब्राह्मणी, रानी मभयमती पोर देवदत्ता वैश्या के कुत्सित माचरण से उसके मन में उत्पन्न हुमा वैराग्य का बीज अंकुर का रूप धारण कर लेता है। अन्त में अपनी पत्नी के सहयोग प्रौर सहमति से वैराग्य का अंकुर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। अपने सत्प्रयत्न से बाद में वह कंवल्य लाम भी कर लेता है। ऋषि-मक्ति एवं सेवा भावना अपने पिता के ही समान सुदर्शन के हृदय में भी समाज के उतारक ऋषियों प्रति भक्ति-भावना है। सेठ वषमदास को दीमा देने वाले ऋषि के प्रति तो वह नतमस्तक हो ही जाता है, साथ ही उनके समझाने पर प्रादर्श-गहस्थ धर्म का पालन भी करता है। वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर वह जिनमन्दिर के एक मुनिराज से दीक्षा लेकर दिगम्बर मुनि बन जाता है। उसके मन में ऋषि मुनियों के प्रति भक्तिभावना इस जन्म से नहीं, अपितु पूर्वजन्म से ही विद्यमान है। पूर्वजन्म में भी उसने एक ऋषि की निष्काम भाव से सेवा की थी। जैन धर्म के प्रति प्रास्थावान सुदर्शन की जैनधर्म मौर जिनेन्द्रदेव पर अत्यधिक श्रद्धा है । समय-समय पर वह जिनमन्दिरों में जाकर अपने भक्तिभावना से मोतप्रोत गीतों से भगवान् को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहता है। मुनियों द्वारा व्याख्यात जैनधर्म के उपदेशों का भी उस पर खूब प्रभाव पड़ता है। अन्त में स्वयं जैनधर्म का महान् ज्ञाता बन जाता है और जनता को धर्माचरण-हेतु प्रेरित भी करता है ।' त्यागो सुदर्शन के पास भोग के साधनों की कोई कमी नहीं है । उसकेरू प-सौन्दर्य पर मोहित होकर कपिला, अभयमती और देवरता उसे मामन्त्रित करती हैं। १. सुदर्शनोदय, ४११५ २. वही, ४११५ ३. बही, २२०, ७२१-२६ ४. बही, २३-३२ ५. वही, ९८५-८६ ६. वही, ४४७ ७. वही, ८॥३२ ८. वही, ४१३२-२५ बही, पञ्चम सर्व के प्रारम्भ के गीत । १०. वही, ९।-१०, ३-७१
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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