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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन
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कालदोष के कारण जनमतावलम्बी लोग भी महावीर के उपदेश का यथोचित रूप से पालन नहीं कर सके । उनमें अनेक सम्प्रदाय तथा उपसम्प्रदाय बनने लगे। जिन बुराइयों से बचने के लिए भगवान् महावीर ने नवीन मागं चलाया था, वे बुराइयाँ जैनियों में ही पुनः प्रकट होने लगीं। जैनधर्मं का संचालन जैनधर्मी राजवर्ग के हाथों से निकलकर वैश्य क्षत्रियों के वर्ग के हाथों में घा गया । परिणामस्वरूप जैनवमं वणिक्वृत्ति से प्रभावित हो गया ।
इतना होने पर भी यह नहीं समझना चाहिए कि जितेन्द्रिय जैनमतावलम्बियों का पृथ्वी पर सर्वथा प्रभाव हो गया है । प्राज भी अनेक जितेन्द्रिय महापुरुष हैं; किन्तु प्रज्ञानतावश हम उन्हें जान नहीं पाते हैं ।
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मन्द में दिव्यगुणों से विभूषित तथा इस महाकाव्य के चरितनायक भगवान् महावीर को हम प्रणाम करते हैं; प्रोर हमारी ( महाकवि की) हार्दिक इच्छा है कि उनकी कीत्ति घरा पर सदा बनी रहे ।
सुदर्शनोदय महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार
प्रथम सगं
भारतवर्ष में श्रृङ्ग नामक एक देश है, जो प्राचीन समय में अपने प्रतुलित वैभव के कारण लोकविश्रुत था । इसी देश में एक नगरी थी - चम्पापुरी; जिसमें आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर के समय तेजस्वी, परमप्रतापी एवं प्रजावत्सल घात्रीवाहन नामक राजा का शासन था । उस राजा की प्रत्यन्त रूपवती किन्तु कुटिल प्रभयमती नाम वाली एक रानी थी ।
द्वितीय सगं
उस समय चम्पापुरी में विचारशील, दानो, निरभिमानी, सम्पत्तिशाली, कलावान्, निर्दोष एवं वैश्यों में सर्वश्रेष्ठ वृषभदास नामक एक सेठ भी रहता था । उसकी पत्नी सुन्दरी, सुकोमल, अतिथिसत्कारपरायणा, सदाचारिणी, मृदुभाषिणी एवं जिनमति नाम वाली थी ।
एकसमय जिनमति ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में महापुरुषोत्पत्ति सूचक स्वप्न देखे । प्रातःकाल होते ही वह अपने पति के पास जाकर बोली कि भाज रात मैंने हर्षवर्द्धक स्वप्नावली देखी है। अब उसका अभिप्राय जानने के लिए मैं मापसे निवेदन करती हूँ । प्रथम स्वप्न में मैंने सुमेरु पर्वत, द्वितीय स्वप्न में कल्पवृक्ष, तृतीय स्वप्न में सागर, चतुथं स्वप्न में निर्धूम अग्नि प्रोर पंनम स्वप्न में प्राकाश में घूमते हुये विमान को देखा है ।
सेठानी की बात सुनकर सेठ ने कहा कि तुमने जिन स्वप्नों को देखा है उनका अभिप्राय कोई भी साधारण मनुष्य नहीं जान तकता । प्रतएव हम दोनों को स्वप्नावली का ठीक-ठीक अभिप्राय जानने के लिए योगिराज के पास चलना चाहिए। तत्पश्चात् वे दोनों ही जैन मन्दिर में पूजन कर योगिराज के दर्शन करने के लिए गए। मुनिराज के पास जाकर सेठ और सेठानी ने प्रणाम निवेदन किया धोर