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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के संक्षिप्त कथासार
भगवान् महावीर ने बताये हैं। उन्होंने संसार की गति का नियन्ता ईश्वर को न मानकर, समय को भाना है। समय हो बलवती शक्ति है जो राजा को रेक पोर रंक को राजा बना देता है।
समय के प्रभाव से जब सत्ययुग त्रेतायुग में परिणत हुआ, तो मानव को जीवन-यापन को वे सब सुविधाए उस प्रकार प्राप्त नहीं होती थीं जो कि सत्ययुग में होती थीं। फलस्वरूप समाज में अव्यवस्था फैल रही थी। इस अव्यवस्था को नियन्त्रित करने के लिए धरा पर चौदह कुलकरों ने जन्म लिया जिनमें नाभिराज प्रथम थे। इनको स्त्री का नाम मरुदेवो था। इन्होंने आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव को पुत्र रूप में प्राप्त किया।
भगवान् ऋषभदेव ने अनेक प्रकार से लोगों का कष्ट दूर किया। उन्हें उपयुक्त जीवन-यापन का उपदेश दिया। गृहस्थ-धर्म का पालन करने के पश्चात् ऋषभदेव ने संन्यास ग्रहण किया और लोगों को धर्म के प्रति प्रेरित किया।
ऋषभदेव के पश्चात् वापर-युग में अजितनाथ आदि तेईस तीर्थकर और भी हुए जिन्होंने ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का ही प्रचार-प्रसार किया।
- एकोनविंश सर्ग इस धर्म में बताया गया है कि कोई भी पदार्थ उत्पन्न या विनष्ट नहीं होता, अपितु नित्य नवीन रूप धारण कर परिवर्तित होता रहता है। सभी पदार्थ । मनादिकाल से अपने कारणों से उत्पन्न होते चले पा रहे हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण ईश्वर नहीं है।
विशतितम सन इस सर्ग का सारांश यह है कि भगवान महावीर ने प्रत्यक्ष-परोक्ष, स्थूलसूक्ष्म सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसलिए वह सवंत्र कहे जाते हैं। मनुष्यों को सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए महावीर द्वारा प्रचलित 'स्याद्वाद' के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ।
एकविश मर्ग शरद-ऋतु की वेला में सर्ववेत्ता भगवान् महावीर ने कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को रात्रि को एकान्तवास किया और रात्रि के मन्तिम समय में, पावानगर के उपवन में उन्होंने अपना पार्थिव शरीर त्यागकर शाश्वत मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान् महावीर के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर उनके प्रधान शिष्य इन्द्रभूति को उनका स्थान प्राप्त हुमा ।
द्वाविश सर्ग भगवान् महावीर के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म की दशा पूर्ववत् न रहो । जैन-धर्म की, 'दिगम्बर-सम्प्रदाय' और 'श्वेताम्वर-सम्प्रदाय' नाम से दो धाराएं हो गई।