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________________ ३४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य--- एक अध्ययन पंचदश सगं समवसरण में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने भगवान महावीर के उपदेश को अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण किया। किन्तु गौतम इन्द्रभूति ने भगवान् की दिव्यवाणी को विशेषरूप से समझा । भगवान के दिव्य वचनों को, उनके गणधरों ने प्रचार-प्रसार हेतु अनूदित किया। भगवान् का शिष्यत्व राजवर्ग के लोगों को नहीं ग्रहण किया, वरन् जन-सामान्य भी इस दिशा में पीछे नहीं रहा । जिस देश के राजपुरुष जैनधर्म को स्वीकार करते थे, वहां की जनता भी अपने शासकों का मनुसरण करती थी। तत्कालीन जैन-मतावलम्बियों ने जैन-धर्म को तो स्वीकार - किया ही, साथ ही उन्होंने जिनालयों एवं जिनाश्रमों का निर्माण करने-करवाने में भी योगदान दिया तथा जैन माधुनों को भी यथागक्ति सम्मान दिया। जैनधर्म को स्वीकार न करने वालों ने भी जैन धर्म के मूल सिद्धान्त 'अहिमा परमो धर्म:' का ग्रहण किया।। इस प्रकार वीरभगवान् द्वारा प्रतित जैनधर्म ब्रह्माण्ड के दिगदिगन्तों में विस्तार पाने लगा। पोडश सगं इस सर्ग में महाकवि ने महावीर भगवान् के समाजोपयोगी विचारों को अंकित किया है। उनका लिखना है कि महाबीर भगवान् “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्त निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्" के सिद्धान्त को मूर्त रूप में देखना चाहते थे। वह पूर्ण अहिंसा, परोपकार, इन्द्रिय-संयम अादि गुणों को सर्वत्र व्यापकता वाहले थे। . लाश सर्ग भगवान महावीर का उपदेश हुमा करता था कि इस धरा पर ईश्वर की पोर से रायो समान अधिकार प्राप्त है और कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं है। संगार परिवर्तनगी है। जिस वस्तु का स्वहा हम जैसा आज देखते हैं, वैशा दूसरे समय में नहीं रहता। अतएव मानतमात्र का सम्मान करके, आत्मोत्थान के मार्ग की ओर अग्रमर होना चाहिए। दूसरों के दोष-दर्शन के समय मौन धारण करना चाहिए; पर उनके गुणों को ईरहित होकर अपनाना चाहिए। विपत्ति ने समय धैर्य नहीं खोना माहिए। पुरुष को अपने ज्ञान और धन के प्रति घमना करना चाहिए। उसे काम-क्रोध-लोभ-मोह से दूर ही रहना चाहिए। समाज में बांगवस्था पुरुष के कर्मानुसार होनी चाहिए, जन्मानुसार नहीं। मनुष्य का मात्र रक्षा ही समाज में पुरुष को स्थिति का निर्धारक हो। पुरुष को प्रात्मविश्वासी, सत्यनि ठ, दृढ़, निर्भीक एवं पापरहित मन वाला होना चाहिए। संसार के द्वन्दों पर विजय प्राप्त करने वाला पुरुष जितेन्द्रिय होकर जिन कहलाता है। उसका अपनी स्थिति के अनुसार शुभाचरण ही 'जैनधर्म' के नाम से प्रसिद्ध है। माश सर्ग इस प्रकार भव-दुःखों से पीड़ित पुरुषों को कष्ट से बचाने के अनेक उपाय
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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