SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकविनामसागर के काव्य-एक अध्ययन ननु जरा पृतना यमभूपतेर्मम समीपमुपाञ्चितुमीहते । बहुगवाधिकृतह तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति प्रदोबत ।। तरुणिमोपवनं सुमनोहरं दहति यच्छमनाग्निरतः परम् । भवति भस्मकलेव किलासको पलितनामतया समुदासको । नववधू किस सक कुचितान्मतिरपसरेन्मुखवारिविषादतिः । विवमताच्च कटी कुलटेब सा स्वलतु पिच्छलगेव पुना रसा ॥"" प्रस्तुत पंक्तियों में चक्रायुध की वृद्धावस्था के विषय में विचार वरिणत है। इन विचारों में स्वाभाविकता पौर रोचकता स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रही है । (2) "धनश्रीरपि तेन मौक्तिकेन शुक्तिरिवादरणीयतां कामधेनुरिव बरसेन भोरमरितस्तमतामुद्यानमालेव वसन्तेन प्रफुल्लभावं समुद्रवेलेब शशधरे णातीवोल्लासंसद्भावमुदाबहार हारलसितवक्षःस्थला"२ प्रस्तुत गोश में सोमदत्त को पुत्र रूप में प्राप्त करने वाली धनश्री की प्रसन्नता का सन्दर एवं स्वाभाविक वर्णन है। (ब) यदीक्षमात्रेणेव विषा विषादप्रतियोगिनं भावमङ्गीकर्वाणा किलेत्थं विच चार स्वमनसि, मनसिजमनोजो मृदुलमांसलसकलावयवतया समवाप्ता. रोग्यो दृशामनिमेषतयोपभोग्यो मदीयहृदोषाङ्गीकरणयोग्योऽस्ति कोऽसो श्रीमान् यः खलु पूर्वपरिचित इव मम चितः स्थानमनुगृह्णाति ।' प्रस्तुत गवभाग में सोमदत्त के दर्शन से विषा के हृदय में उठते हुए रतिभाव काम्बर वर्णन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपयुक्त सभी उदाहरण ऐसी वैदर्भी शंली के है, जिसमें माधुर्य गुण की प्रधानता है, समास प्रत्यल्प हैं, अलङ्कार स्वभावत: पाये है, फलस्वरूप सरलता एवं प्रवाह स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रथम भोर द्वितीय उदाहरण तो अत्यधिक हृदयावर्जक हैं। प्रब एक दो उदाहरण पाञ्चाली शैली के भी प्रस्तुत हैं। स्वयंवरमण्डप में उपयुक्त पर की खोज में घूमती हुई राजकुमारी सुलोचना का एक शब्द-चित्र इस वैद्योपामसहितान्तत्र न भोगाषिभुव इमान्सहिता। तत्यान सपदि दूराम्मधुराधरपिण्डखजूरा ॥ चालितवता यत्रामुकगुणगतवाचि तु सनेत्रा। कौतुतिमेव वलयं साङगुष्ठानमिकोपयोगमयम् ॥ १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ७१-४ २. योदयचम्पू, ३।१० के वाद का गलाश। १. वही, ४ श्लोक १४ के पूर्व का गवमान ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy