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________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में भावपक्ष ३५७ यानजना मनयान्ताम्बरचारिभ्यो घराघरकुलं ताम् । कमलेभ्यः कमशिवं शशिकिरणहासभासमिव ॥"" प्रस्तुत पंक्तियों में समस्त किन्तु मधुर शब्दावली का ऐसा प्रयोग किया। गया है, जो प्रर्थ के अनुरूप है। पब भगवान् महावीर के जन्माभिषेक हेतु प्रस्थित देवगणों की झांकी प्रस्तुत "अरविन्दधिया दधवि पुनररावण उष्णसच्यविम् । धुतहस्ततयात्तमुत्त्यजन्ननयदास्यमहो सुरव्रजम् ।। झषककंटनक्रनिर्णये वियदब्धावुत तारकाचये । कवलयकारान्वये विषं विबुधाः कौस्तुभमित्यमभ्यधुः ।। पुनरेत्य च कण्डिनं पुराधिपुरं त्रिक्रमणेन ते सुराः। . उपतस्पुरमुष्य गोपुराप्रभुवीत्यं जिनप्तिसत्तराः ॥२ प्रस्तुत श्लोकों में प्रवाहपूर्ण शैली है। शैली के इस वैशिष्ट्य से हास और उत्साहभाव और भी अधिक पालादक हो गए हैं ।। गोडी शैली के उदाहरण मुनिश्री के काव्यों में नहीं के ही बराबर हैं। कारण यह है कि कवि का शब्दाडम्बर पर विश्वास नहीं है। उनकी रचनाओं में जहाँ दोघं समास दिखाई देते हैं, उनमें सुगमता और प्रवाहपूर्णता पाई जाती है। मत: ऐसे स्थलों की शैली को 'गोडी शैली' नहीं कहा जा सकता। उपर्यवत विवेचन से स्पष्ट है कि श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में प्रधानतया वैदर्भी शैली का ही प्रयोग किया है। यह शैली उनके काव्यों की विषयवस्तु के अनुरूप भी है। भक्तिभाव, शान्तरस एवं शङ्गाररस वर्णन में पारम्बर की कोई प्रपेक्षा नहीं होती। प्रत: गोडी शैली कवि के अनुकूल भी नहीं होती। कहीं-कहीं वैदर्भी के साथ ही माधुर्यमिश्रित जो पांचाली शैली है, वह भी कथाप्रवाह को बल देती है। (३) वाग्वदग्ध्य 'वाग्वदग्ध्य' का तात्पर्य है-वाणी की शालीनता, बात को कहने का विद्वत्ता से युक्त सुन्दरतम ढङ्ग। जब भी हमारा सम्पर्क किसी वाग्विदग्ध व्यक्ति से होता है, तब उसकी अनुपस्थिति में भी हमें उसकी याद माती रहती है। महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में वाग्वदग्ध्य । कविवर के भी कुछ पात्र वाग्विदग्ध हैं । उनके काव्यों में वरिणत वादग्ध्य के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:१. जयोदय, ६।११।१३ २, वीरोदय, ७.१.१२
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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