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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष २७६ समवर्धत वर्धबन्नयं सितपक्षोचितचन्द्रवत्स्वयम् । निजबन्धुजनस्य सम्पदाम्बुनिधि स्वप्रतिपत्तितस्तदा ।। ' जैसे सूर्य पूर्व दिशा रूप माता की गोद से उठकर उदयाचल रूप पिता के पास जाता है, तो सरोवरों के कमल विकसित हो जाते हैं मोर वह संसार में पूजा जाता है, वैसे ही वह बालक प्रच्छी चेष्टाम्रों वाली माता की गोद से उठकर क्षमा को धारण करने वाले पिता के पास जाता था, तब वह लोगों के नयन-कमलों को विकसित करता हुआ सभी के प्रादर भाव को प्राप्त करता था । माता के समान ही पायों के हाथों में खिलाया जाता हुआ कोमल प्रोर सुन्दर शरीर वाला वह बालक ऐसा लगता था, मानों लता के कोमल पल्लवों के बीच में खिला हुमा सुन्दर फूल हो । जिनदेव के वचनों के समान गुणों से युक्त सम्यग्ज्ञान के समान विशाल इस कोमल पलंग पर तुम्हें सोना चाहिए, ऐसा कहकर घायें उसको सुलाती थीं । XXX इस प्रकार अपनी सुन्दर चेष्टात्रों से अपने बन्धुजनों के प्रानन्दरूप समुद्र को बढ़ाता हुआ यह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भांति स्वयं ही बढ़ने लगा ।) उपर्युक्त श्लोकों में माता-पिता और परिजन वत्सल रस के प्राश्रय हैं । सुदर्शन प्रालम्बनन-विभाव है। सुदर्शन की बालक्रीड़ाएं उद्दीपन विभाव हैं। बालक के प्रति प्रेम प्रदर्शित करना, उसे खिलाना इत्यादि अनुभाव हैं। हर्ष, भावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । श्रीसमुद्रदत्त चरित्र में वर्णित प्रङ्गरस श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में शान्तरस के प्रतिरिक्त अन्य चार रसों का भी थोड़ाबहुत उल्लेख मिलता है। ये चार रस हैं :- वीर, करुण, रौद्र, भीर बत्सल । इस काव्य में वीररस काव्य के नायक के हृदय में निष्पन्न शान्त रस का प्रङ्ग है । करुण रस रामवत्ता के हृदय में निष्पन्न होने वाले शान्त रस का पोषक है । रोड रस प्रन्तः कथा से सम्बद्ध है, भोर वत्सल रस प्रप्रधान है । प्रतः ये चारों रस शान्त रस में प्रङ्गरस हैं। चारों रस सोदाहरण प्रस्तुत हैं : वीर रस - इस काव्य में वीर रस का वर्णन एक स्थल पर मिलता है, पर वह है अत्यल्प । वीर रस का यह उदाहरण दानवीर का है "प्रयासनाख्यानवने कृतस्थिति निषेध्य भद्रो वरघमंक यतिम् । तदीयवाचा मनसाभवन् शुचिः स वानधर्मे कृतवान् पुनारुचिम् ॥ निरीक्ष्य माताऽस्य च दानशालितां निषेषयामास दुरीहिताञ्चिता । तथापि यस्याभिरुचिर्यतो भवेन्निवार्यते कि बलु सा जगंजवे ॥' 112 १. सुदर्शनोदय, ३।२० -२७ २. श्री समुद्रवत्तचरित्र, ४।६-७ -:
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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