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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन
(तत्पश्चात् मासनाभिधान वन में स्थित वरधर्म नामक मुनि के दर्शन करके मोर उनकी वाणी से भद्रमित्र के मन में मोर अधिक पवित्रता मा गई। तब दान धर्म में उसने पहले से भी अधिक रुचि दिखाई । उनकी दानशीलता देखकर उसको लोभी माता ने उसे रोका। फिर भी इस संसार में जिसकी अभिरुचि जिधर होती है, क्या उसको रोका जा सकता है ? अर्थात् भद्रमित्र को दानशीलता को उसकी माता न रोक सकी।)
यहां पर भद्रमित्र दानवीर रस का माश्रय है। पालम्बन-विभाव मुनिराज हैं, उनका उपदेश उपदीपन विभाव है । सन्तोष में वद्धि होना, दानशीलता में बाधक तत्त्वों की चिन्ता न करना इत्यादि मनुभाव हैं। निर्वेद, मति इत्यादि व्यभिचारिभाव है।
करुण रस
करुण रस की अभिव्यञ्जना श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में एक स्थल पर प्रत्यल्प मात्रा में हुई है। किन्तु है यह बहुत मर्मस्पशिनी। सत्यघोष अपनी वञ्चकता के कारण राजा सिंहसेन द्वारा अपदस्थ कर दिया गया । फलस्वरूप मरकर वह राजा के भण्डार में ही सर्प के रूप में पहुँचा। एक दिन भण्डारगृह में पहुंचे हुए सिंहसेन को उसने काट लिया, फलस्वरूप राजा की मृत्यु हो गई। रानी रामदत्ता उसके शोक में व्याकुल हो गई :
"कदापि राजा निजकोषसद्मतः परीक्ष्य रत्नादि विनिव्रजन्नतः । निवद्धवरेण च तेन भोगिनां वरेण दष्ट: सहसव कोपिना ।।
महीमहेन्द्रोऽशनिघोषसद्विपः बभूव यच्छोक वशादिहाक्षिपत् । , उरः स्वकीयं मुहुरातुरा तदाऽपि रामदत्तात्मदशा वशंवदा ॥"'
यहाँ पर अपने पति की मत्यु से रानी रामदत्ता के हृदय में शोक नामक स्थायिभाव का उदय हुमा है, इसलिए वह करण रस का माश्रय है। मृत राणा सिंहसेन पालम्बन-विभाव है । उसकी मृत्यु और रानी का वैधव्य उद्दीपन विभाष हैं। रोमाञ्च, वक्षस्तल पर प्रहार पोर अश्रुपात इत्यादि अनुभाव हैं। प्रावेग, मोह स्मृति, विषाद, ग्लानि, चिन्ता इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। रौद्र रस
इस काव्य में पाठक को एक स्थल पर रौद्र रसानुभूति भी होती है। स्तबकगुच्छ नगर के नागरिक वज्रसेन पर क्रोध करके उसे लाठियों से पीटना शुरू कर देते हैं । तत्पश्चात् व्रजसेन ने भीकुद्ध बायें कन्धे से निकले हुए तेजःसमूह से
१. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४॥११ भोर १५