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महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में मावपक्ष सारे नगर को भस्म कर दिया; और स्वयं भी भस्म होकर नरक को पहुँच
गया।
वत्सल रस
श्रीसमुद्रदत्तचरित्र काव्य में ऐसे दो स्थल हैं जिनमें हमें वत्सल रस को मनुभूति होती है। दोनों ही स्थलों का सोदाहरण वर्णन प्रस्तुत है :
(क) इस काव्य में वत्सल रस की अनुभूति सर्वप्रथम हमें वहाँ होती है, जहां भद्रमित्र का धनार्जन के लिए विदेश जाने का उल्लेख है। भद्रमित्र के मातापिता दोनों ही एकमात्र पुत्र होने से उसे अत्यधिक चाहते हैं। इसलिए उनका विदेश जाना दु:खकारी होता है :
"तस्मै पिता प्रत्यवदत् सुतेति महद्धनं मे सुतरामुदेति । कार्याऽस्ति कुल्या मरवे यथा किञ्जगत्सु पायोनिधये तथा किम् ॥ एकाकि एवाङ्गज ! मे कुलाय: स्वयं त्वमानन्ददृशेऽनपाय: । दुःखायते मह्यमिदं वचस्ते किन्नाम यानं गुणसंप्रशस्ते ॥
___ Xxx एवं निशम्योदितमत्र पित्रा भवन्ति वाचः सुत ते पवित्राः।' मापो यथा गांगझरस्य यत्त्वं पुनीतमातुः समितोऽसि सत्त्वम् । कठोरभावान्निवसान्यहन्तूदयाद्रिवत्ते जननीह किन्तु। रविना काशततिर्यथा स्यात्तमोधरा त्वहिता व्युदास्या ॥
कृत्वाऽत्र मामम्बुजसम्बिहीनां सरोवरीमङ्गज ! किन्नु दीनाम् । किलोचितं यातुमिति त्वमेव विचारयेदं घिषणाधिदेव ॥"२
(उसके पिता ने उत्तर दिया कि हे पुत्र मेरे पास तो वैसे ही बहुत धन है। क्या मरुस्थल के लिए बनाई गई नहर को जल से परिपूर्ण समुद्र के लिये भी बनाने को प्रावश्यकता होती है ? (अर्थाद तुम्हें धनार्जन को प्रावश्यकता नहीं है।) हे पुत्र तुम मेरे कल के एकमात्र प्राधार हो। तुमको देखने से ही मुझे आनन्द की प्राप्ति होती है। गुणों से परिपूर्ण तुम्हारे जाने की बात तो मेरे लिए प्रत्यन्त दुःखदायिनी है। x x x उसके वचन सुनकर उसके पिता ने कहा कि पुत्र ! पवित्र माता से उत्पन्न तुम्हारे वचन गङ्गा के निर्भर से पाये हुए जल के समान पवित्र हैं। उदयाचल के समान कठोर दिल वाला मैं तो तुम्हारे विना रह भी नहीं सकता है। किन्तु तुम्हारी माता तुम्हारे विना मलिन मुख की कान्ति बाली हो
१. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।३१-३२ २. वही, ३॥५-१३ ....
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