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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष है कि दोहरी रीति को अपनाने वाला काञ्चीपति तुम्हारे द्वारा वरण करने योग्य नहीं है। (ब) वह सुलोचना के मन की बात एकदम जान लेती है। जैसे ही वह सुलोचना को जयकुमार के अनुकूल देखती है, वैसे ही विस्तारपूर्वक जयकुमार के गुणों का विस्तृत वर्णन करने लगती है और अन्त में कह भी देती है कि यदि तुम्हारी इच्छा जयकुमार का वरण करने की है तो इसी समय उसके गले में जयमाला डाल दो "यदि चेज्जयैषिणी त्वं दृक्शरविद्धं तत: शिथिलमेनम् । प्रयि बालेऽस्मिन् काले सजाय बन्धाविमम्बेन ।।"' (ग) प्रककोनि का अनवद्यमति नामक मन्त्री भी वाग्विदग्ध है। प्रकीति को अति विनयपूर्वक जयकुमार और महाराज प्रकम्पन को क्षमा करने के लिए समझाता है । उसका कहना है कि सेवक की उन्नति उसके स्वामी के उत्कर्ष में बाधक नहीं बनती क्योंकि वृक्षों की पुष्प-समृद्धि ही वसन्त का माहात्म्य बढ़ाती है। फिर इसी जयकुमार ने तो भरत को दिग्विजय दिलवायी, प्रतः यह उनका स्नेह पात्र है । पिता के समान पूज्य राजा प्रकम्पन के प्रति देष भाव रखना तो गुरुद्रोह ही होगा। (घ) 'जयोदय' काम्य का नायक जयकुमार भी वाग्विदग्ध है । वह युट में भी प्रककोति से जीत जाता है पोर वाग्वदग्ध्य में भी। वह प्रकंकीति से कहता है कि जिस प्रकार जल बिन्दु समुद्र के जल-समूह में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार मेरा मन भी प्रापसे सन्धि करने को उत्सुक है। + + + मैं और आप अलग-अलग हैं, ऐसी भेदबुद्धि समाप्त हो। मिलन तो प्रत्यधिक सम्पत्ति देने बाला होता है जबकि विरह कम्पन उत्पन्न करता है। प्रतः हम लोगों में विषटन नहीं, संघटन होना ही उचित है । (ड) 'सुदर्शनोदय' का नायक सेठ सुदर्शन स्थान-स्थान पर अपनी वाक्चातुरी का परिचय देता है । जब उसके मित्र उसके अनमनेपन का कारण पूछते हैं तो वह बड़ी चतुराई से मनोरमा दर्शन से उत्पन्न सन्ताप की बात को टाल देता है और कहता है कि जिनदेव के मन्दिर में उच्च स्वर से भजन गाने से मुझे सान्ति का अनुभव हो रहा है। १. जयोक्य, ६।११८ २. वही, ७।३५-४३ ३. वही, ११-४६ ४. सुदर्शनोदय, ३२३७
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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