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महाकवि शामसापर के संस्कृत-प्रन्यों में मापन
सहायक कारणों को व्यभिचारिभाव कहा जाता है। काग्यप्रकाशकार प्राचार्य मम्मट ने रस-स्वरूप का कथन करने वाली निम्नलिखित शब्दावली प्रयुक्त की
"कारणान्यय कार्याणि सहकारीणि यानि । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाघटकाव्ययोः ।। विभावा मनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः ।
व्यक्तः स तैविभावाद्यः प्यायी भावो रसः स्मृतः ॥"" मतएव रस को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है
कारण रूप विभाव (मालम्बन और उद्दीपन से जाग्रत), कार्य रूप अनुभाष (कायिक वाचिक चेष्टानों से प्रकट), मोर सहकारी रूप व्यभिचारिभावों (निदेव इत्यादि से) से व्यक्त-माश्रय में स्थित स्थायी भाव को रस कहते हैं।
उदाहरणस्वरूप-दुष्यन्त (पाश्रय) में स्थित रति नामक स्थायीभाव, शकुन्तला पोर मनोहर तपोवन (मालम्बन और उद्दीपन विभाव) को देखकर बाग उठता है । उसका यह भाव शकुन्तला का सौन्दयं-वर्णन, भ्रमर-बाधा से उसको स्वाना इत्यादि चेष्टानों (अनुभावों) से प्रकट हो जाता है । पता नहीं, यह किस कुल की कन्या है ? इसका विवाह मुझसे हो सकता है या नहीं ? इत्यादि शाति (यभिचारिभावों) से पुष्ट हो जाता है, और शृङ्गार रस का रूप धारण कर मेठा है :
स्पष्ट है कि सुषुप्त स्थायीभाव को रस नहीं कहा जा सकता। विभावादि पारा रस-रूप में परिणत स्थायीभाव ही मानन्दानुभूति करा. पाता है। इसीलिए रस को सब प्रानन्द कहते है, मोर स्थायीभाव को मूलप्रवृत्ति । पर यही स्थायीभाव मास्वाय होने पर 'रस' को संज्ञा प्राप्त कर लेता है। (घ) रस-संख्या-निर्णय
भारतीय काव्यशास्त्रियों के मत में ६ प्रकार के स्थायो-भाव हैं, पोर इन्हीं स्वायी भावों के अनुसार ६ रस भी हैं :
स्थायी भाव १. रति
शुङ्गार २. हास
हास्य ३. शोक
करुण ४. क्रोष
रौद्र उत्साह
बीर १. भय
भयानक
१. काव्यप्रकाश, ४।२७-२८