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________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन कलापक्ष-प्रधान काव्य पुरुष को बौद्धिक व्यायाम में उलझा देता है । किन्तु भावपक्षप्रधान काव्य पुरुष को क्लान्ति हरने में समर्थ होता है । भावपक्ष के ही कारण कवि का काव्य, कविता- कामिनी का मनोहर रूप धारण कर लेता है। भाभूषणों से सुसज्जित होने पर भी कान्ता प्रपने हाव-भाव से ही किसी को प्राकुष्ट करने में समर्थ होती है । इसी प्रकार शब्दालङ्कारों मोर प्रर्थालङ्कारों गुंथी रहने पर भी कविता- कामिनी, जव भावपक्ष से संयुक्त होती है तभी, सहृदय को प्रभावित कर पाती है । २४६ उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट हो जाता है कि भावपक्ष काव्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है । प्रत: काव्य को हृदयग्राह्य बनाने के लिए प्रावश्यक है कि इस तत्त्व की कवि द्वारा उपेक्षा न की जाय । इस तत्त्व की उपेक्षा होते ही कवि मोर उसके काव्य का साहित्य समाज में गौण स्थान हो जाता है । (ख) भावपक्ष के भेद भारतीय काव्यशास्त्रियों ने भावपक्ष के क्रमशः प्राठ भेद बताए हैं - रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि प्रोर भावशवलता ।' कवि इन्हीं तत्त्वों के द्वारा पाठक के हृदय को छूने में समर्थ होता है । भावपक्ष के इन तत्वों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रस का है । प्रतएव प्रब सर्वप्रथम रस-स्वरूप प्रस्तुत है । (ग) रस-स्वरूप हमारे मन में अनेक सुषुप्त भावनाएं विद्यमान रहती हैं। किन्हीं विशेष कारण भीर परिस्थितियों के उपस्थित होने पर सुषुप्तावस्था को छोड़कर ये जावस्था में प्रा जाती हैं। हमारी चेष्टायें इन भावनाओंों को प्रकट करती हैं; और कुछ ऐसे सहायक तत्व होते हैं, जो इन भावनात्रों को पुष्ट करते हैं । इस प्रकार हृदय में विद्यमान सुषुप्त भावना ही क्रमशः जाग्रत, प्रकट मोर पुष्ट होकर रस का रूप धारण कर लेती है । जिस प्रकार चावल से भात बनता है; उसी प्रकार भावना से ही रससिद्ध होता है, चावल को भात में बदलने के लिए पात्र, अग्नि, जल मोर पाचनविधि का ज्ञान प्रपेक्षित है; इसी प्रकार भावना को रस रूप में परिणत करने के लिए - कारण, विशिष्ट - वातावरण, बेष्टायें और सहायक कारण अपेक्षित हैं । काव्य-शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय तो भावना हुई हृदय में. स्थित स्थायी भाव । कारण भीर परिस्थितियों का काव्यशास्त्रीय नाम क्रमशः .मालम्बन-विभाव और उद्दीपन विभाव है। चेष्टात्रों को मनुभव कहा जाता है । १. (क) मम्मट, काव्यप्रकाश, ४ । २६ (ख) विश्वनाथकत साहित्यदर्पण, ३२५६ का उत्तराधं । २६० का पूर्वार्द्ध ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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