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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
मद, प्राक्षेप, क्रूरदृष्टि इत्यादि अनुभाव हैं। मोह. उग्रता, श्रमर्ष इत्यादि म्यभिचारिभाव हैं
सुलोचना ने स्वयंबर-मण्डप में बैठे हुए अन्य राजाओं को छोड़कर जयकुमार के गले में जयमाला डाल दी। प्रकीति के सेवक दुर्मर्षरण को जयकुमार की प्रतिष्ठा सहन नहीं होता । वह पीने की उनकी पद-प्रतिष्ठा का स्मरण कराता है । उसे भाँति-भाँति के वचन कहकर उत्तेजित करता है। जयकुमार धौर प्रकम्पन महाराज की निन्दा करता है। फेनम्वरूप प्रर्ककीति क्रुद्ध हो जाता है, मोर जयकुमार और ग्रकम्पन से कर ठान लेता है । वह जयकुमार और प्रकम्पन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर लेता है । ग्रनवद्यमति नाम के मंत्री के समझाने का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसकी इच्छा को जानकर राजा प्रकम्पन अपना दूत उसके पास भेजते हैं, लेकिन वह टस से मस नहीं होता :
“कल्यां समाकलय्यग्रामेनां भरतनन्दनः । रक्तनेत्रो जनादेव वभूव क्षीवतां गतः ॥ दहनस्य प्रयोगेण तस्येत्यं दारुणेङ्गितः । दग्धश्चक्रिसुतो व्यक्ता श्रङ्गारा हि ततो गिरः ||
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राज्ञामाज्ञामवशे वश्यं वश्योऽयं भो पुनः स्वयम् । नाशं काशीप्रभोः कृत्वा कन्यां धन्यामिहानयेत् ॥
'नानुमेने मनागेव तत्थ्यमित्थं शुचेर्वचः । क्रूरश्चक्रिसुतो यद्वत् पयः पित्तज्वरातुरः ॥
साघारणधराधीशान् जित्वापि स जयः कृतः । द्विपेन्द्रो न मृगेन्द्रस्यसु तेन तुलनामियात् ॥ मोसुलोचनयानोऽर्थो व्यर्थमेव न पौरुषम् । इथं भावविरोधार्थ कर्मशर्मवतां मतः ॥
यत्यय सदपत्यते जसा सार्पिता कमलमालिकाऽञ्जसा । मूच्छिनास्तु न जाननेदुना तावतार्ककरतः किला मुना ॥ साम्प्रतं सुखलताप्रयोजनात् पश्य यस्य तनुजा सुरोचना । वाशां वरदरङ्गतः प्रभु दूत रे वृषभ इत्यसावभूत् ।।""
१. जयोदय ७।१७-६५