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महाकविमानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में भावपक्ष
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वीरश्रियं तावदितो वरीतुं भर्तु व्यं पायावयवा तरोतुम् । भटाग्रणी प्रागपि चन्द्रहासयष्टि गलालकृतिमारतवान् सः ॥ निपातयामास भटं धराया मेक: पुन: साहसितामथायात् । स तं गृहीत्वा पदयोश्च जोषं प्रोक्षिप्तवान्वायुपथे सरोषम् ।।
जयेच्छुरादूषितवान्विपक्षं पक्षं प्रमाणः प्रवर्णः सदक्षः । हेतावुपात्तप्रतिपत्तिरत्र शस्दैश्च शास्त्ररपि सोमपुत्रः ॥ यदाशुगस्थानमितः स धीरः प्राणप्रणेता जयदेववीरः। मरातिवर्गस्तुणतां बभार तदाय काष्ठाधिगतप्रकारः ॥
उरीचकारावकलङ्कलोऽपि परिजयं नाम रथं जयोऽपि । खरोऽध्वना गच्छति येन सूर्यस्तेनैव सोमोऽपि सुधौषधुर्यः ।।
रपसादयसारसाक्षिरन्धपतिना सम्प्रति नागपाशबढः । । शुशुभेऽप्यशुभेन चक्रितुक्तत्तमसासन्तमसारिरेव भुक्तः ॥
प्रस्तुदर्कचिच्चिन्तो जयश्च विजयान्वितः ।
जनोऽभिजनसम्प्राप्तो वर्तमानाभिधानतः ॥""
प्रस्तुत पद्य पंक्तियों में जयकुमार के हृदय में विद्यमान उत्साह नामक स्थापित भाव, युद्धभूमि, प्रकीति को युद्धविषयक चेष्टामों से उद्दीप्त होकर पर विभिन्न रीतिरूप अनुभाव से प्रकट होकर, पति, मति, गवं इत्यादि वितरित भावों से परिपुष्ट होकर वीररस को सन्दर अभिव्यञ्जना करा रहा है। वीर शान्त का अंग
वीररस भी जयोदय काव्य में शान्त रस को अपेक्षा प्रधान है। बाद रस के समक्ष इसकी वह स्थिति है जो समुद्र के समक्ष एक सरोवर की होती है। अतः यह रस शान्त का मङ्ग रस है । रोत रस
जयोदय महाकाव्य में रौद्र-रस की अभिव्यंजना एक स्पन पर है। काम्य का प्रतिनायक मकोति इस रस का माषय है। जयकुमार इसके बालपण विभाव हैं । जयकुमार के गले में सुलोचना द्वारा जयमाला डालना, संसल, मनववमति का समझाना इत्यादि उद्दीपन-विभाव है। नेत्रों का सानो पाला अपनी वीरता की प्रशंसा करना, जयकुमार के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करताबावेक,
१. बयोदय, ८१-८५