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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन
एक दिन श्रीदत्त के गृह में शिवगुप्त मौर गुप्त नामक दो मुनि प्राये । श्रीदत्त के गृह में निवास करती हुई गाभणी धनश्री को देखकर गुप्तमुनि ने ज्येष्ठ मुनि से पूछा कि कौन दुःखदायी पुत्र इसके गर्भ में है जिसके कारण यह स्त्री इतनी दुःखी दिखाई दे रही है । उनके वचन सुनकर शिवगुप्त ने गुप्त मनि से कहा कि यह सेठानी अभी तो दुःखी दिखाई दे रही है, लेकिन दुःख के दिन बीत जाने पर इसका पुत्र जैनधर्म का धुरन्धर होगा। राजश्रेष्ठी के पद को प्राप्त करके विश्वंभर राजा की कन्या का पति होगा।
दुष्ट श्रीदत्त मुनि के वचनों को सुनकर गर्भस्थ बालक को मारने की इच्छा करने लगा। धनधी ने प्रसूतिवेला में पुत्र को जन्म दिया। प्रसूति के कष्ट से वह मूच्छित हो गई। यह समाचार पाकर श्रीदत्त ने घर की वृद्ध स्त्रियों से यह घोषणा करा दी कि मरा हुमा बालक उत्पन्न हुअा है; और सद्योजात शिशु को वथ हेतु एक पाण्डाल के हाथों में सौंप दिया। चाण्डाल ने उस बालक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसे मारने के बदले एकान्त स्थान में छोड़ दिया और घर चला
गया।
श्रीदत्त का बहनोई सेठ इन्द्रदत्त घूमता हुआ उसी स्थान पर पहुंचा । ग्वालों की बातों से उस बालक का समाचार जानकर निःसन्तान होने के कारण बालक को प्रसन्नतापूर्वक उठा लिया और घर जाकर अपनी स्त्री राधा से उसका पालन करने को कह दिया । अपने पुत्र की उत्पत्ति की घोषणा करके उन्होंने महान् उत्सवों की प्रायोजना की।
श्रीदत्त ने जब यह समाचार सुना तो वह इन्द्रदत्त के घर माया भौर कंपटपूर्वक बहिन के साथ उस बालक को अपने घर ले गया। बालक को मारने की इच्छा से उसने उसको एक चाण्डाल को दे दिया। बालक की रूप-सम्पदा से द्रषित होकर चाण्डाल ने उसे घने वृक्षों के बीच एकान्त स्थित नदी के किनारे रख दिया और घर चला गया।
सन्याकाल में उस बालक को वहाँ देखकर ग्वालों ने उसे उठाकर ग्वालों के मुखिया गोविन्द को दे दिया। पुत्र की इच्छा से गोविन्द ने उसे घर लाकर अपनी स्त्री सुनन्दा को सौंप दिया। उन्होंने उस बालक का नाम धनकीति रखा और बरे स्नेह से उसका पालन किया । धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त करते हुए धनकीर्ति को एक दिन दुष्ट श्रीदत्त ने देख लिया। उसका वृत्तान्त जानकर उसने गोविन्द से कहा कि मेरे घर में एक मावश्यक कार्य है, अतः इस पत्र को लेकर अपने पुत्र को भेज दो। गोविन ने धनकीति को जाने की स्वीकृति दे दी। उस दुष्ट ने अपने पत्र में पत्र महाबल को सम्बोधित करते हुए लिखा था कि इस कुल का नाश करने वाले व्यक्ति को अवश्य ही मार देना । उस पत्र को लेकर पिता पोर सेठ की अनुमति