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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्थों के स्रोत १११ पाकर धनकीति शीघ्रता से गन्तव्य की मोर चल पड़ा। उज्जयिनी नगरी में वह एक महान मानवन में प्रविष्ट हुमा । राह की थकान को दूर करने के लिए एक वृक्ष के नीचे सो गया । थोड़ी देर बाद अनङ्गसेना वेश्या वहां आई; मोर उसने उस युवक को सोते हुए देखा । पूर्वजन्म के उपकार के कारण उत्पन्न स्नेह के वश उसने उसके पास रखे पत्र को पढ़कर उसके अक्षरों पर विचार किया। तत्पश्चात् अपने नेत्र के काजल को सलाई में लगाकर पत्र में लिखा-'मेरी भार्या ! यदि तुम मुझसे स्नेह करती हो, पौर पुत्र महाबल ! यदि तुम मुझे अपना पिता समझते हो तो मेरी अपेक्षा के विना ही धूम-धाम से मेरी पुत्री श्रीमती इसको दे देना।' इस कार्य को करके पुनः पत्र को पूर्ववत् रखकर चली गई। __ जब धनकोति सोकर उठा तो श्रीदत्त के घर जाकर उसने वह पत्र उन माता-पुत्र को सौंप दिया । शीघ्र ही उसका विवाह श्रीमती के साथ हो गया। इस वृत्तान्त को सुनकर श्रीदत्त ने व्याकुल मन से लौटकर नगर के बाहर चण्डिका के मन्दिर में एक पुरुष को धनकीति के वध के लिए नियुक्त कर दिया। घर पाकर उसने धनकोति से कहा कि मेरे घर की यह रीति है कि विवाह के बाद लड़का रात्रि के समय में कात्यायनी के मन्दिर में जाता है। ऐसा सुनकर धनकीति सहमति प्रकट करके पूजा की सामग्री लेकर निकला तो नगर के बाहर उसके साले ने उसे देखा, मोर पूछा कि इस समय अंधेरा हो जाने पर आप अकेले कहाँ जा रहे हैं ? उसने बताया कि माता की प्राज्ञा से दुर्गा के मन्दिर में जा रहा हूँ। महाबल ने धनकीर्ति को रोक दिया और स्वयं मन्दिर चला गया। घनकीति तो निर्वाध घर पहुँच गया; और महाबल यमलोक को गया। पुत्रशोक से विह्वल श्रीदत्त ने एकान्त में अपनी पत्नी से कहा कि यह धनकोति किस प्रकार मारा जाए ? उसने कहा कि आप चुप ही रहें, भापका वांछित कार्य मैं करूंगी। तत्पश्चात् उसने विष मलकर लड्डू बनाये और अपनी पुत्री से कहा कि उज्ज्वल कान्ति बाले लड्ड अपने पति को देना मोर श्यामवर्ण वाले लड्डू अपने पिता को देना। पुत्री को निर्देश देकर वह शीघ्र ही स्नान के लिए नदी को चली गई। माता की दुश्चेष्टा से अनभिज्ञा श्रीमती ने उज्ज्वल कान्ति वाला लड्डू अपने पिता को दे दिया, उस लड्डू को खाते ही सेठ श्रीदत्त की मृत्यु हो गई। . भीमती की माता विशाखा ने घर पाकर जब स्वामी को जीवित नहीं देखा; तब शोकाकुल होकर अपने पति के क्रूरकर्म की निन्दा की; श्रीमती को प्राशीर्वाद दिया; और स्वयं भी विषमय लड्डू खाकर यमलोक चली गई। इस प्रकार पांच बार मृत्यु के मुख से बचकर धनकीति सुखपूर्वक रहने लगा। एक दिन शुभमुहूर्त में विश्वंभर ने अपनी पुत्री धनकीति को दे दी; मोर उसे महाठिपद पर मासीन किया।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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