________________
महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
उन्होंने अन्य धर्मानुयायियों के अतिरिक्त अपना स्वतन्त्र मार्ग चुना । अपना 'वीर'... नामक सार्थक करने के लिए तपश्चरण के समय बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना किया और सब पर विजय प्राप्त की ।
३२
एकादश सगं
एक दिन भगवान् महावीर ने ध्यान करते समय अपना सम्पूर्ण पूर्ववृत्तान्त जान लिया। सबसे पहले वह पुरुरबा नाम के भील थे । तत्पश्चात् प्रादितीर्थंकर ऋषभदेव के पौत्र मरीचि के रूप में उन्होंने जन्म ग्रहण किया। मरीचि ही स्वर्ग का देब बना । फिर ब्राह्मण योनि में जन्मा । वह ब्राह्मण अनेक कुयोनियों में जन्म लेता हुआ एक वार शाण्डिल्य ब्राह्मण मौर उसकी पाराशरिका नाम की स्त्री का स्थावर नामक पुत्र हुप्रा । प्रव्रज्या के फलस्वरूप उन्होंने माहेन्द्र स्वर्ग के देवत्व का उपभोग किया । तत्पश्चात् राजगृह नगर में विश्वभूति और उसकी जैनी नामक स्त्री का विश्वनन्दी नामक पुत्र हुधा । तपस्या करने पर विश्वमन्वी महाशुक्र नामक स्वर्ग में गया । तत्पश्चात् विश्वनन्दी पोदनपुर के राजा प्रजापति और रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ । इसके बा विश्वनन्दी को रोरव नरक में जाना पड़ा । इसके बाद उसे सिंह की योनि प्राप्त हुई। यह सिंह मरकर नरक गया। फिर सिंह के रूप में जन्मा । हिंसायुक्त स्वभाव वाले उस सिंह को किसी मुनिराज ने उसके पूर्वजन्मों का वृत्तान्त बता दिया। सिंहयोनि के पश्चात् वह मृतभोजी देव हुभ्रा । इस देव ने कनकपुर के राजा कनक के पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण किया। मुनिवेश धारण करने के पश्चात् यह राजकुमार लान्तत्र स्वर्ग में पहुंचा। फिर इस देव ने साकेत नगरी में राजा ब्रजपेण मोर शीलवती रानी के पुत्र रूप में जन्म ग्रहण किया । अन्त में तपस्या करते हुए महाशुक्र स्वर्ग को गया । पुनः पुष्कल देश की पुण्डरीकिणी पुरी के सुमित्र राजा मोर सुव्रता रानी का प्रियमित्र नामक राजकुंमार हुम्रा । अन्त में तपस्या के फलस्वरूप वह सहस्रार स्वर्ग में जन्मा । पुनः पुष्कल देश की छत्रपुरी नगरी के राजा श्रभिनन्दन श्रोर रानी वीरमती का नन्द नामक पुत्र हुआ । इसी जन्म में दंगम्बरी-शिक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग का इन्द्र बना । उसी इन्द्र ने अब इस कुण्ड नपुरी में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान नामक राजकुमार के रूप में जन्म लिया है ।
अपने इन पूर्वजन्मों के वृत्तान्त को महावीर ने स्वयं किए पाप का फल बताया। उन्होंने कुटुम्ब से असहयोग एवं क्रोध, मत्सर प्रादि के त्याग पर बल दिया और सत्याग्रह का पालन करने के लिए कहा ।
द्वादश सर्ग
प्रात्मतत्व का चिन्तन करते हुए महावीर भगवान् ग्रीष्म ऋतु में पर्वत-शिखर पर, वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे और शीतकाल में चौराहे के ऊपर बैठे। उन्होंने