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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काग्य अन्यों के संक्षिप्त कथासार
प्रहम-सर्ग राजा सिद्धार्थ ने भी अपने पुत्र का जन्म-महोत्सव बड़ी धूमधाम से सम्पन्न किया। पुत्र के शरीर की बढ़ती हुई कान्ति को दृष्टि में रखकर राजा ने अपने पुत्र का नाम श्रीवर्धमान रखा। बालक वर्षमान प्रानी सुन्दर-सुन्दर बालोचित चेष्टामों से सम्पूर्ण जन-समुदाय को हर्षित करने लगा।
पूर्णतया स्वस्थ शरीर वाले भगवान् धीरे-धीरे बाल्यावस्था से युवावस्था की ओर अग्रसर हुए। पुत्र को युवावस्था में पदार्पण करते हुये देखकर पिता सिद्धार्थ ने उनके लिए विवाह-योग्य कन्या देखने का निश्चय किया। किन्तु वर्धमान ने पिता के इस प्रस्ताव का अनुमोदन नहीं किया। पिता के बार-बार आग्रह करने पर वर्षमान ने नम्रतापूर्वक उन्हें समझाया और वैवाहिक जीवन का पालन करने के स्थान पर उन्हें ब्रह्मचर्य-व्रत-पालन की अपनी बलवती इच्छा प्रकट की। पुत्र की ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रति ऐसी निष्ठा देखकर पिता ने हर्षित होकर उनके शिर का स्पर्श करके यथेच्छ जीवन-यापन करने की अनुमति दे दी।
नवम सर्ग विवाह-प्रस्ताव को ठकराने के पश्चात् भगवान् का ध्यान संसार की शोचनीय दशा की ओर गया । हिसा, स्वार्थलिप्सा, अधर्म, व्यभिचार, दुर्जनता इत्यादि बुराईयों से लिप्त संसार की रक्षा करने का जब भगवान् ने निश्चय किया तो उसी समय धरा पर शरद-ऋतु का प्रागमन हुमा ।
दशम सर्ग जो पेड़-पौधे वसन्त ऋतु के आगमन से हरे-भरे हो जाते हैं, शीत-ऋतु के प्रागमन से वे मुरझा भी जाते हैं--प्रकृति के इस व्यापार को देखकर भगवान् महावीर को संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान हो गया। फलस्वरूप उनके हृदय में वैराग्य-भावना का उदय होता है । सभी देवगण उनकी इच्छा का अनुमोदन करते हैं। तब शीघ्र ही भगवान् बन जाकर, वस्त्राभूषण त्याग कर, केशों को उखाड़ कर, मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की दशमी तिथि को दगम्बरी दीक्षा ले लेते हैं मोर मौन धारण कर लेते हैं। तत्पश्चात् उनके मन में मनःपर्यय' नामक ज्ञान का उदय होता है।
१. 'ईन्तिराय ज्ञानावरणक्षयोपशमे सति परमनोगतस्यार्थस्य स्फुटं परिच्छेदकं
ज्ञानं मनःपर्यायः । (ईर्ष्या मादि विघ्न रूप ज्ञानावरण के नष्ट या शान्त हो जाने पर दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थित तत्त्व को स्पष्ट रूप से व्याप्त करने वाला ज्ञान मनःपर्याय है।)
-'सर्वदर्शनसंग्रह' के 'माईत दर्शन' से ।