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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन
__राजा से प्राज्ञा पाकर वे सभी देवियां कंचुकी के साथ माता के समीप जाकर उसकी चरण-वन्दना करने लगीं। अपने सन्दर वचनों से देवियों ने माता को पाश्वस्त किया और उसकी सेवा में तत्परता से जुट गईं। रानी को नहलाने में, उसका प्रलंकरण करने में, संगीत द्वारा रानी का मनोरंजन करने में वे देवियां जरा भी प्रमाद नहीं करती थीं । देवियों के प्राग्रह पर रानी प्रियकारिणी, उनके भगवद्विषयक प्रश्नों का उत्तर देकर, उन्हें सन्तुष्ट करती थीं। भगवान् महावीर की जननी से जैन-धर्म-विषयक प्रवचनों को सुनकर, देवियां उसको यथासमय सुस्वादु भोजन कराती थीं। भ्रमण के लिए समीपवर्ती उद्यानों में ले जाती थीं । तत्पश्चात् रानी को पुष्पसज्जित शय्या पर लिटाकर, उसके चरण दबाकर, उस पर पंखा झलकर, उसे सुला देती थीं। इस प्रकार वे सभी देवियां माता के साथ ही, गर्भस्थ जिनेन्द्रदेव की भी सेवा-अर्चना करने लगीं।
षष्ठ सर्ग . धीरे-धीरे रानी प्रियकारिणी में गर्भवृद्धि के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। यह देखकर राजा सिद्धार्थ अति प्रमन्न हुअा। इसी बीच ऋतुराज वसन्त का मदिर शुभागमन हुग्रा । चारों प्रोर उल्लास का साम्राज्य फैल गया। उसी मनोहर वेला में, चैत्र मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के दिन रानी प्रियकारिणी ने शुभलक्षणोपेत पुत्र को जन्म दिया। पुत्रोत्पत्ति होने पर रानी अत्यधिक हर्षित हुई। शिशु के निर्मल शरीर से कमल-सौरभ के समान सुगन्धि निःसृत हो रही थी।
सप्तम सर्ग प्रियकारिणी के गर्भ से जिस समय भगवान् ने जन्म लिया, उस समय सभी दिशामों में प्रानन्द का संचार हो गया । इन्द्र का सिंहासनं दोलायमान हो उठा। भगवान् के जन्म का समाचार जान कर इन्द्र ने दूर से ही उन्हें प्रणाम किया पोर सभी सुरासुरों सहित कुण्डनपुर के लिए प्रस्थान किया। कुण्डनपुर की देवताओं ने तीन बार प्रदक्षिणा की। इन्द्रागी ने प्रसूतिगृह में प्रवेश किया। उन्होंने एक माया निर्मित शिशु को माता के पार्श्व में सुला दिया और जिन भगवान् को लाकर इन्द्र को सौंप दिया।
__ भगवान् को देखकर इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया और ऐरावत हाथी पर बिठा कर जैन-मन्दिरों से युक्त सुमेरु पर्वत के लिए प्रस्थान किया। पर्वतराज सुमेरु ने जिनेन्द्र को अपने शिर पर धारण किया। तत्पश्चात् देवगणों ने क्षीरसागर से भगवान् का अभिषेक किया। अभिषेक के पश्चात् भगवान् के शरीर को पोंछकर इन्द्राणी ने उनके शरीर को सुन्दर सुन्दर प्राभूषणों से सजाया। इस प्रकार देवगणों ने भगवान् का जन्म-महोत्सव मनाया और फिर ले जाकर उन्हें उनकी माता की गोद में सौंप दिया। तत्पश्चात् वे सभी देवता नाचते-गाते हुए अपने-अपने निवास स्थान को चले गए।