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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन
तर्क, मति, घृति इत्यादि भावों की उत्पत्ति एक साथ हुई है ।' पति के चले जाने पर धीवरी के मन में भी मति, निर्वेद, शङ्का, चिन्ता इत्यादि भावों का उदय एक साथ हुआ है। पति की मृत्यु से व्याकुल धीवरी के मन में चिन्ता, व्यग्रता, जड़ता, मोह, निर्वेद, मति इत्यादि भाव माने जाने लगते हैं । 3 सोमदत्त के गले में बँधे हुये पत्र में उसकी मृत्यु का समाचार जानकर वसन्तसेना के मन में शङ्का, बितर्क, धृति, मति इत्यादि भावों की उत्पत्ति हुई है । ४
यद्यपि भावशान्ति इत्यादि के मौर भी स्थल मुनिश्री के काव्यों में मिलते हैं, किन्तु विस्तार के भय से उनका प्रस्तुतीकरण नहीं किया है ।
( प ) ध्वनि का स्वरूप
जिस काव्य में वाच्यार्थ की प्रपेक्षा व्यङ्ग्यार्थ में अधिक चमत्कार दृष्टिगोचर होता है, उसे ध्वनि-काव्य कहा जाता है । काव्य के दो अर्थ होते हैं- एक तो वह जिसे कवि कहता है, दूसरा वह जिसे वास्तव में कवि कहना चाहता है । जब कवि के काव्य में दूसरा प्रथं सुन्दर बन पड़ता है, तब उसको उत्तम काव्य या ध्वनिकाव्य कहा जाता है । "
(फ) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में ध्वनि
महाकवि श्रीज्ञानसागर के काव्यों में ध्वनि काव्यत्व का प्राचुर्य है । किन्तु दृष्टान्त रूप में प्रत्येक काव्य में से एक-एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा(क) जयोदय महाकाव्य -
सुलोचना स्वयम्वर के प्रसङ्ग में अलङ्कार से वस्तु व्यङ्ग्य ध्वनि का उदाहरण देखिये
"काञ्चीपतिरयमायें काञ्चीमपहर्तुमर्हतु तवेति ।
काचीफलवदिदानीं द्विवरतां विभ्रमादेति ॥ ६
(हे पायें ! काञ्ची नगरी का वह शासक तुम्हारी करधनी को खोलने
१. दयोदयचम्पू, २।२३-२८
२. बही, २। श्लोक ३० के पूर्व के मद्यभाग से श्लोक ३१ तक ।
३. बही, २० श्लोक ३२ के पूर्व के गद्यभाग से इलोक ३४ तक ।
४. बही, ४। श्लोक १० के बाद से श्लोक १२ के बाद के गद्यभाग तक ।
(क) काव्यप्रकाश, १1४ का उत्तरार्धं ।
(स) साहित्यदर्पण, ४०१ का उत्तरार्ध ।
६. जयोदय ६।३६