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________________ ८२ महाति जानसागर के काम.....क अध्ययन कारण पछा, तब कपिला ने कहा कि सुदर्शन ने मुझे बताया था कि वह नमक है । कपिल के व वन मनकार रानी ने कहा कि तुम ठगी गई हो। मदर्शन अपनी स्त्री के लिए नहीं, अन्य स्त्रियों के लिए नपुंसक है। करिता अभाः को उपके पर की चुनौती देने हा मुदर्शन को वश में करने के लिए न । अभया ने कह दिया कि मैं सुदर्शन को वा में करने में समर्थ हैं। माजमहल पहुँचकर गनी ने अपनी पण्डिताय को बुलाया और लज्जा त्याग कर कहा कि मदर्शन को शीघ्र हो मेरे घर ले प्रा. अ.था मैं पागा त्याग दंगी। पण्डिता ने इसे प्रशोभन कार्य समभ कर रानी को जात गमभाया। तब रानी ने कहा कि मैंने कपिला ब्राह्मणी के सम्मुख प्रतिज्ञा बी क मादि वह मेरे द्वारा प्रसन्न नहीं किया गया तो मैं प्राण त्याग दूंगी। निकाय दामी ने अध्या मे कहा कि पर्व के दिनों में रात्रिवेला में एकान्त में वह सदर्शन स्थिरचित्त होकर बैठा रहता है। तभी उपाय सहित सको लाया जायगा ! - इसके बाद वह दामी कुम्भकार के घर गई और रमने काभकार मे सात मिट्टी के पलले बनाये। उनमें से एक पुतले को वापर प्रतिपदा के दिन दासी गर्न के महल की प्रोर कढ़ी तो नामाल ने उगे?: । द्वगाल के प्रश्नों को सनसार सने कह दिया कि जो मुझे अच्छा लगता है. उसे लेकर जा रही हूँ, नुहा नया न कमान है ? तब क्रोध में युका म का रनरीय पकड़कर खींवा, कसम्बका पुतना जमीन गिर करके नईया । बोध से कम्ति शी यानी पण्डिया ने कहा कि यह पुल मैं मर के लिए ले जा रही थी, इसके पूजन के पश्चात हो रानी नअन गरेगः । किन्तु वह पुतला तुम्हारे द्वारा नष्ट कर दिया गया। विना पुनो के ग. देगकार रानी पीड़ित होंगी। कल इस वृत्तान्ट को राजा से कहार मैं तुम्हारा सिर अवश्य ही कटवा दंगी। दामी के वचनों से डरकर द्वारपाल से उससे अनुना की और दासी को. उसका इच्छित कार्य करने की अनुमति दे दी। द्वारपाल के वचनों से दामी सन्तुष्ट हो गई। ताश्चात् प्रष्टमी तिथि के दिन जब दागी ने मशान : प्रतिगायोग में स्थित सुदर्शन को देखा तय सुदर्शन को उठाकर वह रानी के पास ले गई । गनी की दुश्चेष्टानों से अप्रभावित सदर्शन निश्चल ही बैठा रहा । अन्त में 'इस श्रेष्ठी ने मेरा भोग कर लिया, शीघ्र ही पाओ', इस प्रकार के रानी के वचनों से कष्ट राजा ने लोगों में कहा कि शीघ्र ही श्मशान ले जाकर इसका , शिमछेद कर दो। श्मशान में ले जाकर जैसे ही वे उसे तलवार से मारने को उद्घत हुए. कि तलवार सुदर्शन के गले में पुष्पमाला के रूप में स्थित हो गई। यह घटना होते ही विस्मित
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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