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________________ महाकवि ज्ञानसागर काव्य-एक अध्ययन "प्रादित्य उर्ध्या रसभुक समस्ति ततो हि सन्तापकरप्रशस्तिः । ' विधुः कलाभिः परिवर्द्धक: सन् पितुः प्रसत्य जगतोऽप्यलं सः।" (सूर्य पृथ्वी के एकत्रित जल को ग्रहण करता है, इसीलिए उसकी प्रसिरि सन्ताप देने वाले रूप में होती है। किन्तु चन्द्रमा अपनी कलानों से अपने पिता समुद्र की वृद्धि करता हुप्रा संसार के सभी लोगों को अच्छा लगता है।) भद्रमित्र के कहने का तात्पर्य है कि पुत्र दो प्रकार के होते हैं-प्रथम तो बे होते हैं जो पिता द्वारा अजित धन को विना सोचे समझे नष्ट करने पर तुले रहते हैं, और पिता को कष्ट देते हैं । दूसरे वे होते हैं जो पिता द्वारा प्रजित धन को अपने कौशल से बढ़ाते हैं, ऐसे पुत्रों को पिता तो प्यार करते ही हैं. अन्य लोग भी उनके गुणों की सराहना किए विना नहीं रहते । अतः स्वयं धनार्जन करके मैं भी स्पृहणीय पुत्र बनना चाहता हूं, सन्तापकारी पुत्र नहीं। यहां प्रस्तुतप्रशंसा प्रलंकार से उक्त वस्तु ध्वनित होती है। (5) बयोदयचम्पू ___ गुणपाल को मृत्यु के पश्चात् शोकाकुल गुणत्री के कपन में दृष्टान्त मलकार से वस्तुव्यङग्य ध्वनि देखिए : "उद्धूलिता धूलिरहस्करायाप्यपेत्य सा मूनि नुरस्त्विमायाः। इमां सदुक्ति वलये प्रसिद्धामुपैति मे संघटितां सुविता ॥"२ यहां गुणश्री यह कहना चाहती है कि स्वयं किये दुष्कर्मो का फल स्वयं को भोगना पड़ता है; मेरे पति भी सोमदत्त को मारने में सतत प्रयत्नशील थे, इसलिए स्वयं ही मृत्यु-मुख में पहुंच गये। (ब) गुणीभूतव्यंग्य का स्वरूप जिस काग्य में व्यंग्य गुणीभूत हो जाता है-अर्थात् अव वाच्यार्थ प्रधान हो और व्यंग्यार्थ प्रप्रधान,-उस काव्य को गुणीभूतव्यंग्य काव्य कहते हैं। (भ) कवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में गुणीभूत-व्यङ्ग्य - ध्वनि-काव्य के समान ही गुणीभूत-व्यङग्य काव्य के भी अनेक उदाहरण श्रीमानसागर के काव्यों में रष्टिगोचर होते हैं, किन्तु शोष-प्रबन्ध को और विस्तार देने की अनिच्छा से प्रत्येक काव्य का एक-एक ही उदाहरण प्रस्तुत करना ठीक रहेगा। १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३१३.. . . २. क्योदयचम्पू: ६७ ३. (क) काव्यप्रकाश, ११५ का पूर्वाध । (ब) साहित्यदर्पण, ३।१३ का पूर्वाषं ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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