SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यग्रन्यों के संक्षिप्त कथासार द्वाविंशतितम सर्ग जयकुमार मोर सुलोचना परस्पर भोग-विलास करते हुये सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। त्रयोविंशतितम सर्ग राज्यकार्य को अपने छोटे भाई विजय को देकर जयकुमार ने अपना ध्यान प्रजा के हितचिन्तन में लगाया । एक दिन जयकुमार सुलोचना के साथ महल की छत पर बैठा था। माकाश में एक विमान को देखकर 'प्रभावती' नाम की पूर्व जन्म की प्रिया का स्मरण करके वह मूच्छित हो गया। सुलोचना ने अपने सामने एक कपोतयुगल को देखा तो वह भी अपने पूर्वजन्म के प्रेमी रतिवर का स्मरण करके मूच्छित हो गई। उपचार से उन दोनों की मूर्छा समाप्त हो गई। किन्तु वहां पर उपस्थित स्त्रियों ने सुलोचना के चरित्र पर सन्देह किया। जयकुमार के पंछने पर सुलोचना ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त सुनाया, जो इस प्रकार है : विदेह देश में पुण्डरीकिणी नगरी में कुबेरप्रिय नामक सेठ अपनी स्त्री के साथ रहता था। उसके यहाँ रतिवर नामक कबूतर और रतिषेणा नाम को कबूतरी रहती थी। एक दिन सेठ के यहाँ दो मुनि माये। उनके दर्शनों से कपोतयुगल को अपने पूर्वजन्मों की याद आ गई । फलस्वरूप उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। इसके बाद रतिवर ने आदित्यगति पौर शशिप्रभा के पुत्र हिरण्यवर्मा के रूप में जन्म लिया; पोर रतिषेणा ने वायुरथ पीर स्वयंप्रभा की पुत्री प्रभावती के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में भी इन दोनों का विवाह हो गया। बाद में पूर्वजन्मों की याद मा जाने से हिरण्यवर्मा ने तप करना प्रारम्भ कर दिया । संसार की गति को देख कर प्रभावती भी मार्यिका बन गई। एक दिन जब वे दोनों तप कर रहे थे, उनके पूर्वजन्म के शत्रु वियुच्चोर ने माकर क्रोष के कारण उनको जला दिया । तत्पश्चात् वे दोनों स्वर्ग पहुँचे । स्वर्ग में घूमते हुये अपने पूर्वजन्म के स्थानों को देखते हुए वे एक सर्प-सरोवर के समीप पहुंचे। वहां भीम नाम के एक मुनिराज तप कर रहे थे। उनसे ज्ञात हुमा कि जब वह देव (हिरण्यवर्मा) सुकान्त रूप में जन्मा या, तब वह उसके भवदेव नाम के शत्रु थे, . कपोत के जन्म के समय वह विलाव के रूप में उनके शत्रु बने थे; मोर हिरण्यवर्मा के जन्म के समय में विद्युच्चोर भी वहीं थे। इस समय वह भीम के रूप में उत्पन्न हुये हैं। सुलोचना ने स्पष्ट कर दिया कि जयकुमार हो सुकान्त, रतिवर कबूतर, . हिरण्यवर्मा पौर स्वर्ग के देव के रूप में उत्पन्न हुआ था। सुलोचना से पूर्वजन्मों का वृत्तान्त सुनकर जयकुमार बहुत प्रसन्न हुमा। इस समय उन दोनों को दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो गई।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy