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महाकवि भानसागर के काम्प-एक मासान
चतुविशतितम सर्ग दिव्यज्ञान की सहायता से जयकुमार भोर सुलोचना पर्वतों मोर तीयों पर विहार करने के लिए गये । सुमेरु, श्रीपुरुपर्वत (उदयाचल) इत्यादि में विहार करते हुये वे दोनों हिमालय पर पहुँचे । वहां उन्होंने एक मन्दिर देखा। उसमें जाकर विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा की। तत्पश्चात् मन्दिर से निकल कर पर्वत पर विहार करते हुये जयकुमार मोर सुलोचना एक दूसरे से कुछ दूर हो गये। इस . समय सोधर्म इन्द्र की सभा में जयकुमार के शील की प्रशंसा की जा रही थी, जिसे सुनकर रविप्रभ नामक देव ने अपनी पत्नी कांचना को जयकुमार के शील की परीक्षा लेने के लिए भेजा। उसने पाकर जयकुमार के सौन्दर्य की प्रशंसा की; अपनी मनगढन्त कहानी सुनायी पौर भिन्न-भिन्न प्रकार की कामचेष्टानों से जयकुमार को विचलित करना चाहा । परन्तु जयकुमार के हृदय पर उसके वचनों मोर चेष्टानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; उलटे उसने उसके व्यवहार की निन्दा की मोर उसे स्त्रियों के प्राचरण की शिक्षा दी । जयकुमार के उदासीनतायुक्त वचनों को सुनकर उसने क्रोषपूर्वक उसे उठा लिया और जाने लगी। इसी समय सुलोचना ने वहां पहुंचकर उसको भत्र्सना की । सुलोचना के शोल के माहात्म्य से उसने जयकुमार को छोड़ दिया और चली गई। अपनी पत्नी से जयकुमार के निष्काम भाव को जानकर रविप्रम ने देववन्ध जयकुमार की पूजा की।
इस प्रकार तीर्थों में विहार करके जयकुमार अपने नगर में लौट प्राया और सुलोचना के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
पंचविशतितम सर्ग सांसारिक भोग-विलासों की निःसारता को देखकर जयकुमार के मन में एक दिन राग्यभाव जाग उठा । वस्तुतत्व का चिन्तन करते हुये उसकी इच्छा वन जाने की हो गई।
- षविशतितम सर्ग जयकुमार ने अपने पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक किया और स्वयं वन की पोर चल पड़ा । हस्तिनापुर की प्रजा ने हर्ष और विषाद-इन दो विरोधी भावों का, साथ-साथ अनुभव किया। वन में जयकुमार भगवान् ऋषभदेव के पास गया; उसने उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति की और कल्याण मार्ग के विषय में पूंछा ।
सप्तविंशतितम सर्ग भगवान ऋषभदेव ने जयकुमार को धर्म का स्वरूप बताया। भगवान् के उपदेश को सुनकर वह दृढ़तापूर्वक प्रात्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गया।
प्रविशतितम सर्ग जयकमार ने समस्त वाह्य परिग्रहों का परित्याग कर दिया और घोर तपस्या में संमग्न हो गया। तपश्चरण के परिणामस्वरूप उसने मनःपर्ययज्ञान