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महाकवि मानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष
३३१ प्रत्येक सर्ग का उपान्त्य-श्लोक और उससे बनने वाला पक्र-बन्ध-चित्र क्रमशः प्रस्तुत है :
(क) जयमहीपतेः साधुसनुपास्तिचक्रवन्धः .
"जन्मश्रीगुणसाधनं स्वयमवन् सन्दुःखदैन्याबहिः, यत्नेनैष विधुप्रसिद्धयशसे पापापकृत्सस्वपः । मञ्जूपासकसङ्गतं नियमनं शास्ति स्म पृथ्वीभते, तेजःपुञ्जमयो यथागममथाहिंसाधिपः श्रीमते ॥"
-जयोक्य, १।११३
BEFERREEon
ARREATEलावातावाद
बाबाबाARS
इस चक्रवन्ध के परों के प्रत्येक प्रथम पक्षर पोर छठे अक्षर को क्रमशः पढ़ने पर 'जयमहीपतेः साधुसनुपास्ति'-यह वाक्य बनता है। यह वाक्य इस तथ्य की पोर संकेत करता है कि जयकुमार के द्वारा साधु की उपासना की गई है। दो पूरे सर्ग का वयं-विषय है।