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महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन वियोगिनी
'विषमे ससजा गुरुः समे सभैरा लोऽथ गुरुवियोगिनी ।'
छन्दों में मात्रा की दृष्टि से, श्रीज्ञानसागर के काव्यों में इस छन्द का तृतीय स्थान है। कुछ पिङ्गलाचार्यों ने इस छन्द का नाम सुन्दरी भी दिया
कवि ने इस छन्द का प्रयोग जयोदय के २७५, वीरोदय के ४२, सुदर्शनोदय के ३५, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के २७ और दयोदयचम्पू के २ श्लोकों में किया है। इस प्रकार बियोगिनी छन्द में निबट श्लोकों की संख्या ३८१ है। इस छन्द का प्रयोग कवि ने विवाह-वर्णन' कन्या की विदा एवं नदी वर्णन' पोर देवगणों द्वारा भगवस्मन्माभिषेक वर्णन में किया है। .
रपोडता
'रान्तराविह रपोरता लगो।'
-वृत्तरत्नाकर ॥३० रपोदता छन्द के प्रयोग के विषय में विद्वानों का मत है कि इसका प्रयोग चन्द्र, पनवनादि उद्दीपन विभावों के वर्णन में पन्छा होता है। किन्तु हमारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने इस बन्द का प्रयोग मुनि-उपदेशवर्णन,' दूतपाता, मुढसजा एवं नगरागमनवर्णन में किया है। यह छन्द पयोदय के २७५
१. 'मयुजोर्यदि सो जगी युजोः समरा ल्गी पनि सुन्दरी तदा।'
-पन्दोमम्मरी, २९ २. बयोक्य, १०१.८१ १. वही, ११-८२ ४. पीरोक्य, १.१६ ५. पोता विभावेषु मण्या पन्द्रोदवादिषु।'
-सुवृत्ततिलक, ॥१८ का पूर्वार्ष । ६. जयोदय, २॥१.११०, ११३, ११९-१२०, १२२, १२४.१२६ सपा १३६ ७. वही, पा५५-१०४ ८. वही, २१११.६६, ८६-t.