SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष अब कुछ छन्दों के लक्षण एवं कवि द्वारा उनके प्रयोग का विवेचन प्रस्त उपजाति "मनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजी पादो पदीयावुपजातयस्ताः । . इत्वं किलान्यास्वपि मिश्रितासु वदन्ति जातिष्विदमेव नाम ॥" -छन्दोमंजरी, २३ श्रीज्ञानसागर ने जयोदय महाकाव्य के ७५८, वीरोदय के ५०३, सुदर्शनोव के १३८, श्रीसमुदतवरित्र के १३४ प्रौर क्योदयम्भू के २६ श्लोकों में इस छन्द को निवट किया है। समीक्षकों के अनुसार इस छन्द का प्रयोग शङ्काररस के पालम्बनभूत उदात्तनायिकापों के रूपवर्णन, वसन्तत एवं उसके अंगों के वर्णन में करना चाहिए।' अपने पालोच्य कवि के काव्यों को देखकर यह ज्ञात होता है कि उपजाति के प्रयोग सम्बन्धी उपर्युक्त नियम को मोर उनका कोई ध्यान न था। क्योंकि उन्होंने अपने काव्यों में अधिकांशतः प्राय: प्रत्येक सर्म में इस छन्द का प्रयोग कर दिया है । उन्होंने इस छन्द का प्रयोग न केवल वसन्त वर्णन में ही अपित युद्धवर्णन में भी किया है । उन्होंने नगर-वर्णन में भी इस छन्द के प्रयोग में अपनी कुशलता का परिचय दिया है, उनकी यह कुशलता नायिका के रूप-वर्णन में भी रष्टिगोचर हो जाती है । पिंगलाचार्यों द्वारा बताए गए उपजाति के प्रायः सभी मेव उनके काव्यों में दृष्टिगोचर हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कवि इस छन्द के कुछ निश्चित स्थलों के प्रतिरिक्त भी इसका प्रयोग करने में कुशल है। १. "शुगारालम्बनोदारनायिकारूपवर्णनम् । बसन्तादि तदङ्गञ्च सच्छायमुपजातिभिः ॥" -सुवृत्ततिलक: ३१७ २. वीरोक्य, ६।१-२, ४.१३ ३. अयोदय, ८।१-३, ५-६०, ६३, ६५७-७५ ४. वीरोदय, २।२, ५, ७, ६-१२, १४, १६-२२, ३५-४४ ५. जयोदय, ११।१-३८, ४०-४७, ४६-५१, ५३-५६, ६२-३८, ७०-७६ १. वही, ८।१ (जाया); (बुद्धि), ३ (शाला), ५ (हंसी), (रामा), . । (माला); सुदर्शनोदय, ११४ (प्रेमा), ५ (ऋद्धि)।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy